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समयसार
सिद्धेन परमार्थसता भगवता ज्ञानस्वभावेन द्रव्यांतरस्वभावभावेभ्यः सर्वेभ्यो भावान्तरेभ्यः परमार्थतोऽतिरिक्तमात्मानं संचेतयते स खलु जितमोहो जिन इति द्वितीया निश्चयस्तुतिः । एवमेव च मोहपर परिवर्तनेन रागद्वेषलोधमानमागालोभकर्मनोकर्ममनोवचनकायमूत्राण्येकादश पञ्चानां श्रोत्रचक्षुणिरसनस्पर्शनसूत्राणामिद्रियसूत्रेण पृथग्व्याख्यातत्वाद्व्याख्येयानि । अनया दिशान्यान्यप्यूह्यानि ॥३२॥ लट् अन्य पुरुष एक० । आत्मानं-द्वितीया एक० कर्ता । त-द्वितीया एक० । जितमोहं-द्वितीया एक० कमविशेषण । साधं-द्वितीया एक० कर्म । परमार्थविज्ञायका:-प्रथमा बहुवचन कर्ता या कर्तृ विशेषण । विदतिवर्तमान लट् अन्य पुरुष बहु० क्रिया ॥३२॥
दृष्टि-१- उपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय (२४) । २-उपाध्यभावापेक्ष शुद्ध ध्याथिकनय (२४अ)।
प्रयोग-विकारभावको नैमित्तिक प्रतएव अस्वाभाविक जानकर उससे अत्यंत उपेक्षा करके अपनेको ज्ञानमात्र अनुभवना चाहिये ।।३२॥
प्रागे भाव्यभावकभावके प्रभाव द्वारा निश्चयस्तुति कहते हैं - [जितमोहस्य तु सापोः] जिसने मोहको जीत लिया है ऐसे साधुके [यदा] जिस समय [मोहः क्षीणः] मोह क्षीण याने नष्ट [भवेत्] होता है [तवा] उस समय [निश्चयविद्भिः] निश्चयके जानने वाले [खनु] निश्चयसे [सः] उस साधुको [क्षीणमोहः] क्षोणमोह ऐसे नामसे [भव्यते] कहते हैं।
तात्पर्य--जितमोह साधुके निर्विकल्प समाधिबलसे जब मोह समूल नष्ट हो जाता है तब उसे क्षीणमोह कहते हैं ।
टीकार्थ--इस निश्चयस्तुति में पूर्वोक्त विधान द्वारा प्रात्मासे मोहका तिरस्कार कर जैसा कहा, बैसे ज्ञानस्वभाव द्वारा अन्य द्रव्यसे अधिक प्रात्माका अनुभव करनेसे जितमोह हुया, उसके जिस समय अपने स्वभावभावकी भावनाका अच्छी तरह अवलम्बन करनेसे मोह की संतानका ऐसा अत्यंत विनाश हो जाता है कि फिर उसका उदय नहीं होता, ऐसा भावकरूप मोह जिस समय क्षोण होता है, उस समय याने भावकमोहका क्षय होनेपर आत्माके विभावरूप भाव्यभावका भी प्रभाव हो जाता है उस समय भाव्यभावकभावके प्रभावसे एकत्व होनेपर टङ्कोत्कीएंवत् निश्चल परमात्माको प्राप्त हुमा क्षीणमोह जिन' ऐसा कहा जाता है अर्थात् साधु पहले अपने बलसे उपशमभाव द्वारा मोहको जीते, पोछे जिस समय अपनी बड़ी मामय से मोहका सत्तामें से नाश कर ज्ञानस्वरूप परमात्माको प्राप्त होता है तब 'क्षीण मोह