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समयसार प्रमादो यत: । अतः स्वरसनिर्भरे नियमितः स्वभावे भवन्मुनिः परमशुद्धता व्रजति मुच्यते चाचिरात् ।।१६।। त्यक्त्वाऽशुद्धिविधायि तकिल परद्रव्यं सामग्रं स्वयं स्वे द्रव्ये रतिमेति यः स नियतं सर्वापराधच्युतः । बंधध्वंसमुपेत्यनित्यमुदितः स्वज्योतिरच्छोच्छलच्चैतन्यामृतपूरपूर्णअप्रतिसरणं अपरिहारो अपरिहारः अधारणा अधारणा अणियत्ती अनिवृत्तिः अणिदा अनिन्दा अगरहा
अब मोक्षाधिकारको पूर्ण करते समय मंगलरूपज्ञानको महिमा कलशरूप काव्यमें कहते हैं—बंध इत्यादि । अर्थ-कर्मके बंधके छेदनेसे अविनाशी प्रतुल मोक्षका अनुभव करता हुआ नित्य उद्योतसे विकसित स्वाभाविक अवस्था युक्त अत्यंत शुद्ध, अपने ज्ञानमात्र प्राकारके निजरसके भारसे प्रत्यंत गंभीर द धीर यह पूर्ण ज्ञान किसी प्रकार नहीं चले ऐसी अचल अपनी महिमामें लीन हुअा है। भावार्थ-कर्मका नाश करके मोक्षरूप हग्रा अपनी स्वाभाविक अवस्थारूप अत्यन्त शुद्ध समस्त ज्ञेयाकारको गौण कर निज ज्ञानका प्रकाश - जिसकी थाह नही व जिसमें प्राकुलता नहीं" ऐसा प्रकट देदीप्यमान होकर अपनी महिमा में लीन हृया हैं।
इस प्रकार उपयोग रंगभूमिमें मोक्षसस्वका स्वांग प्राया था। सो जब सहज ज्ञानस्वरूपमें ज्ञान का ज्ञान प्रकट हुआ तब मोक्षका स्वांग निकल गया ।
प्रसंगविवरण- अनन्तरपूर्व गाथाद्वयमें शुद्धामाराधन को निरपराध बताया गया था। उस सम्बन्धमें यह जिज्ञासा हुई कि चरणानुयोगमें बताया गया कि प्रतिक्रमण प्रादि करनेसे दोष दूर होते हैं, प्रतिक्रमण करने बाला निरपराध हो जाता है, फिर शुद्धात्माराधना पर बल क्यों दिया जाता है इसका समाधान इन दो गाथावों में पाया है।
तथ्यप्रकाश.-१-अप्रतिक्रमण दो प्रकारका होता है--(१) अज्ञानीजनमाधारण अप्रतिक्रमण, (२) प्रतिक्रमणाप्रतिक्रमणादिविलक्षण अप्रतिक्रमण । २- प्रतिक्रमण विधिनिषेध सम्बन्धित तीन भूमिकायें है---(१) अज्ञानियोंका अप्रतिक्रमण, (२) द्रव्यरूप प्रतिक्रमण, (8) ज्ञानियोंका अतिक्रमण । ३- द्रव्यरूप प्रतिक्रमणके कुछ अनन्तिर ये है--सरागचारित्ररूप शुभोपयोग. व्यवहारप्रतिकमरा ! ४-ज्ञानिजनाश्रित प्रप्रतिक्रमएके कुछ अनर्थान्तर ये हैं-- परमोपेक्षारूप संयम, निर्विकल्पसमाधि, निश्चयप्रतिक्रमण, शुभाशुभास्रवदोषनिराकरण, वीतरागचारित्र, सम्यक् त्रिगुप्तिरूप रत्नत्रय, निर्विकल्प शुद्धोपयोग । ५- प्रज्ञानियोंका अतिक्रमण सर्वथा विषकुम्भ है । ६- अज्ञानियोंका अप्रतिक्रमण मिथ्यात्वविषयकपायपरिणतिरूप है अत: वह नरकादि दुःखोंका कारणभूत है । ७- द्रव्यरूपप्रतिक्रमण लगे हुए दोषोंके निराकरणके लिये है, अतः अमृतकुम्भ है तथापि तृतीयभूमिकाको न देखने गले