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कर्तृकर्माधिकार सतः किमात्मनि बद्धस्पृष्टं किमबद्धस्पृष्टं कर्मेति नयविभागेनाह
जीवे कम्म बद्ध पुटुं चेदि ववहारण्यभणिदं । सुद्धणयस्स दु जीवे अबद्धपुट्ट हवइ कम्मं ॥१४१॥
छुमा हुअा प्रात्मामें, है कर्म यह व्यवहारनय कहता।
जीयमें शुद्धनयसे, न बंधा न छुश्रा है कुछ कर्म !।१४१५ जीके कर्म बद्धं स्पृष्टं चेति व्यवहारनयणितं । शुद्धनयस्य तु जीवे अबद्धस्पृष्ट भवति कर्म ।। १४१ ॥
नीवपुद्गलकर्मणोरेकबंधपर्यायत्वेन तदात्वे व्यतिरेकाभावाज्जीवे बद्धस्पृष्टं कर्मति व्यवहारनयपक्षः । जीवपुद्गलकर्मणोरनेकद्रव्यत्वेनात्यंतव्यतिरेकाजोवेऽबद्धस्युष्टं कर्मेति निश्चयनयपक्षः ।।१४१॥
नामसंज्ञ- जीव, कम्म, बद्ध, पुटु, च, इदि, बवहारणयभणिद, सुद्धणय, दु, जीव, अबद्धपुटु, कम्म । धातुसंश-भण कथने, हब सत्तायां । प्रकृतिशब्द-जीव, कर्मन्, बद्ध, स्पृष्ट, च, इति, व्यवहारनयणित, शुद्धनय, तु, जीव, अबद्धस्पृष्ट, कर्मन् । मूलधातु-स्पृश संस्पर्शने तुदादि, वि-अव हुन हरणे, भण शब्दार्थः, शुध शौचे दिवादि, बंध बन्धने, भू सत्तायां । पद विवरण-जीवे-सप्तमी एक० । कर्म-प्रथमा एक० । बद्धंप्र० ए० । स्पृष्टं-प्र० ए० | च, इति-अध्यय । व्यवहारनयणितं-प्रथमा एक० । शुद्धनयस्य-षष्ठी एक० । तु-अव्यय । जीवे-सप्तमी एकवचन । अबद्धस्पृष्टं-प्र० एकः । भवति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । कर्म-प्रथमा एकवचन ॥१४१।।
सिद्धान्त - १- घटनामें जीव कर्मसे बंधा व छुमा हुया है । २- स्वरूपमें जीव कर्म से बँधा छुवा हुअा नहीं है ।
दृष्टि-१- संश्लिष्ट विजात्युपरिल प्रसद्भूतव्यवहार (१२५) १ २- प्रतिषेधक शुद्धनय (४६म)।
प्रयोग---अपनी बद्धस्पृष्ट दशाका परिचय कर दुर्दशाके निमित्तभूत मोहका परिहार कर प्रबद्धस्पृष्ट अन्तस्तत्त्वको निहारकर बद्धाबद्धधिकल्पसे दूर होकर अपने ज्ञानमात्र स्वरूपमें रत होनेका पौरुष करना ।। १४१ ॥
अब बताते हैं कि नयविभाग जाननेसे क्या होता है ?- [जी] जीवमें [कर्म] कर्म [पद्ध] बंधा हुआ है अथवा [अबद्ध] नहीं बंधा हुआ है [एवं तु] इस प्रकार तो [नयपशं] नयपक्ष [जानीहि] जानो [पुनः यः] और जो [पक्षातिकांतः] पक्षसे पृथक् हुमा [भव्यते] कहा जाता है [स: समयसारः] वह समयसार है, निर्विकल्प प्रात्मतत्त्व है।
टीकार्य-जीवमें कर्म बंधा हुआ है ऐसा कहना तथा जीवमें कर्म नहीं बंधा हुप्रा है ऐसा कहना ये दोनों ही विकल्प नयपक्ष हैं। जो इस नयपक्षके विकल्पको लांघ जाता है