________________
२५४
समयसार अथ चैकस्यैव पुद्गलद्रव्यस्य भवति कर्मत्वपरिणामः ततो रागादिजीवाज्ञानपरिणामाद्धेतोः पूष. ग्भूत एवं पुद्गलकर्मणः परिणामः ।। १३६-१४० ।। एकस्य-षष्ठी एक० । तु-अव्यय । परिणामः-प्रथमा एक० । पुदगलद्रव्यस्य-षष्ठी एक० । कर्मभावेन-तृक एक० । तत्-अव्ययभावे । जीवभावहेतुभिः-१० बहु० । विना-अव्यय । कर्मणः-षष्ठी एक० । परिणाम:प्रथमा एकवचन ।। १३६-१४०॥
प्रयोग-पगलकर्मविपाक पुद्गलकर्मका परिणाम है उससे भिन्न अपनेको ज्ञानाकार मात्र निरखकर ज्ञानमात्र अन्तस्तत्त्वमें रमनेका पौरुष करना ॥१३६-१४०।।
अब पूछते हैं कि प्रात्मामें कर्म बद्धस्पृष्ट है कि प्रबद्धस्पृष्ट ? उसका उत्तर नविभाग से कहते हैं--[जीवे] जीवमें [कर्म] कर्म [बद्ध] बंधा हुआ है [च] तथा [स्पृष्टं] छुपा हुआ है [इति] ऐसा [व्यवहारनयमणिस] व्यवहारनयका वचन है [तु] और [जीवे] जीवमें [कर्म] कर्म [मबद्धस्पृष्टं] अबद्धस्पृष्ट [भवति] है अर्थात् न बैंधा है, न छुपा है ऐसा [शुद्धनयस्य] कथन शुद्धनयका है। - तात्पर्य–व्ययहारनयसे जीवमें कर्म वक्षस्पृष्ट ज्ञात होता है, किन्तु शुद्धनयसे प्रबद्धस्पृष्ट जात होता है।
____टोकार्थ-जीव और पुद्गलकर्मको एक बंधपर्यायरूपसे देखनेपर उस समय भिन्नताका प्रभाव होनेसे जीवमें कर्म बंधे हैं और छुए हैं ऐसा कहना तो व्यवहारनयका पक्ष है और जीव तथा पुद्गलकर्म के अनेकद्रव्यपना होनेसे अत्यन्त भिन्नता है, अतः जीवमें कर्म बद्धस्पृष्ट नहीं है, ऐसा कथन निश्चयनयका पक्ष है ।
भावार्थ-निश्चयनय तो एक द्रव्यको देखता है सो उसके मतसे कोई भी पदार्थ बदस्पुष्ट नहीं है, व्यवहारनय घटनाको भी निरखता है सो व्यवहारनयसे वद्धस्पृष्ट है ।
प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथायुगलमें बताया गया था कि पुद्गलद्रव्यका परिणाम जीवसे पृथग्भूत है । इस वर्णनपर जिज्ञासा हुई कि तो क्या कर्म प्रात्मामें बद्धस्पृष्ट है या अपदस्पृट है इस जिज्ञासाका समाधान इस गाथामें किया गया है ।
सभ्यप्रकाश-१- संसारबशामें जीव और पुद्गलकर्मका एकबन्धपर्यायपनो है । २बन्धावस्थामें जीव और पुद्गलकमकी भिन्नता विदित नहीं होती। ३- जीवमें कर्म बद्ध है व स्पृष्ट है यह व्यवहारनयका सिद्धान्त है । ४- जीव और पुद्गलकर्म ये भिन्न-भिन्न द्रव्य हैं, प्रतः जीवमें कर्म प्रवद्धस्ट है यह निश्चयनयका सिद्धान्त है । ५- घटना व वस्तुगतताको दृष्टिसे दोनों अपनी-अपनी दृष्टि में तथ्यभूत हैं । ६- बद्धाबद्धादिविकल्परूप शुद्धात्मस्वरूप नहीं