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________________ पूर्व रंग वाच्चानिर्दिष्टसंस्थानः । षट्वयात्मकलोकाद् ज्ञेयाव्यक्तादन्यत्वाकषायचक्राद्भावकाव्यक्तादयत्वाच्चित्सामान्यनिमग्नसमस्तव्यक्तित्वात् क्षणिकव्यक्तिमात्राभावात् व्यक्ताव्यक्तविमिश्रप्रति. भासेपि व्यक्तास्पर्शत्वात् स्वयमेव हि बहिरंतः स्फुटमनुभूयमानत्वेपि व्यक्तोपेक्षोन प्रद्योत माल - त्वाच्चाव्यक्तः। रसरूपगंधस्पर्शशब्दसंस्थानव्यक्तत्वाभावेपि स्वसंवेदनबलेन नित्यमात्म प्रत्यक्षत्वे सत्यनुमेयमानत्वाभावालिंगग्रहणः। समस्तविप्रतिपत्तिप्रमाधिना विवेचकजनसमपितसर्वस्वेन सकलमपि लोकालोकं कवलीकृत्यात्यंतसाहित्यमंधेरेरणेव सकलकालमेव मनागप्यविचलितानन्धसाधारणतया स्वभावभूतेन स्वयमनुभूयमानेन चेतनागुरणेन नित्यमेवांतःप्रकाशमानत्वात् चेतनागुणश्च स खलु भगवानमलालोक इहैकष्टोत्कीर्णः प्रत्यग्ज्योतिर्जीवः ॥४६॥ सकलमपि विहायाह्नाय चिच्छतिरिक्त स्फुटतरमवगाह्य स्वं च चिच्छक्तिमात्र । इममुगरि चरतं चारु विश्वस्य साक्षात् कल यतु परमात्मात्मानमात्मन्यनंत ।।३।। चिच्छक्तिव्याप्तसर्वस्वसारो जीव इयानयं । अंतोतिरिक्ताः सर्वेपि भावाः पौद्गलिका अमी ।।३६।। करणे, ग्रह उपादाने, जीव प्राणधारणे, सं-ठा गतिनिवृत्ती उपसर्गादर्थपरिवतनम् । पदविवरण ...अरसद्वितीया एक० कर्मविशेषण, अगन्ध-द्वि० एक० कर्मविशेषण, अरूप-द्वि० एक० कर्मबिशेषण, अव्यक्तं-द्वि० एक० कर्मविशेषण, चेतनागुणं- द्वित: कर्मगिरणा, कवि ए. मिमिषा, जानोहि-आज्ञार्थे लोट् मध्यम पुरुष एकवचन क्रिया, अलिंगाहणं-द्वि० ए० कर्मविशेषण, जीव-द्वि० ए० कर्म, अंतरिटसंस्थानं-द्वितीया एकवचन कर्मविशेषण ॥४६।। दृष्टि-५- परद्रव्यादिग्राहक द्रव्याथिकनय (२६) । २-- शुखनय (४६) । ३. परम भावग्राहक द्रव्याथिकनय (३०) । प्रयोग—अपने पापको सर्व ज्ञेयोंसे परे सहज चैतन्यस्वभावमात्र अनुभवना चाहिये ॥४६॥ ___ अब चिच्छक्तिसे अन्य जो भाव हैं वे सब पुद्गलद्रव्यसम्बन्धी है, ऐसी पागेके गाथा की सूचनिका रूप काव्य कहते हैं-'चिच्छति' इत्यादि । अर्थ-चैतन्यशक्तिसे व्यास जिसका सर्वस्वसार है ऐसा यह जीव इतना है, और इस चिक्तिसे शून्य जो भाव हैं वे सभी पुद्गलजन्य हैं, सो पुद्गलके ही हैं । ऐसे इन भावोंका व्याख्यान छह गाथात्रोंमें करते हैं [जीवस्य] जीवके [वर्ण:] रूप [नास्ति नहीं है [गंधः अपि न] गंध भी नहीं है, [रसा अपि न] रस भी नहीं है [५] और [स्पर्शः अपि न] स्पर्श भी नहीं है, [रूपं अपि न] रूप भी नहीं है [शरीरं म] शरीर भी नहीं है [संस्थानं अपि म] संस्थान भी नहीं हैं [संहननं न] संहनन भी नहीं है । [जीवस्य] तथा जीवके [रागः न अस्ति] राग भी नहीं है [द्वषः अपि न] द्वेष भी नहीं है. [मोहः एव] मोह भी [न विध] विद्यमान नहीं है [प्रत्ययाः . नो] प्रास्रक भी नहीं हैं
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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