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समयसार त्वाल परमार्थतः पुद्गलद्रव्यस्वामित्वाभावात् द्रव्येन्द्रियावष्टंभेन शब्दाश्रवणात् स्वभावतः क्षायोपशमिकभावाभावाद्भावेन्द्रियावलम्बन शब्दाश्रवणात् सकलसाधारणकसंवेदनपरिणामस्व. भावत्वात् केवलशब्दवेदनापरिणामापनत्वेन शब्दाश्रवणात् सकलज्ञेयज्ञायकतादात्म्यस्य निषेधाच्छन्दपरिच्छेदपरिणतत्वेपि स्वयं शब्दरूपेणापरिणामनाच्च। शब्दः । द्रव्यांतरारब्ध शरीरसंस्थानेनैव संस्थान इति निर्देष्टुमशक्यत्वात् नियतस्वभावेनानियतसंस्थानानंतशरीरवतित्वात्संस्थान - नामकर्मविपाकस्य पुद्गलेषु निर्दिश्यमानत्वात् प्रतिविशिष्टसंस्थानपरिणलसमस्तवस्तुतत्त्वसंवलि. ससहज सम्वेदनशक्तित्वेपि स्वयमखिललोकसंवलनशुन्योपजायमाननिर्मलानुभूतितयात्यंतमसंस्थानगणे । प्रातिपदिक- अरस, अरूप, अगंध, अव्यक्त, चेतनागुण, अशब्द, अलिंगग्रहण, जीव, अनिदिष्टसंस्थान । मूलधातु-रस आस्वादनस्नेहनयोः, रूप रूपक्रियायां, चिती संज्ञाने, शब्द भाषणे, लिगि चित्री
अब इसी अर्थको कलशरूप काव्यमें कहकर इसके अनुभवकी प्रेरणा करते हैं । 'सकल' इत्यादि । अर्थ-हे भव्य प्रात्मायो ! चिच्छक्तिसे रहित अन्य सकल भावोंको मूलसे शीघ्र छोड़कर और अच्छी प्रकार अपने चिच्छक्तिमात्र भावको अवगाहन करके समस्त पदार्थसमूह रूप लोकके ऊपर प्रवर्त रहे एकमात्र अविनाशी प्रात्माका पात्मामें ही अभ्यास करो, उसका साक्षात् अनुभव करो । भावार्थ-एक चैतन्यशक्तिमात्र प्रास्मामें ही उपयुक्त होगी ।
प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व स्थल में यह बताते चले आ रहे थे कि अध्यवसानादिक भाव (रागादिक भाव) पुद्गलस्वभाव हैं, ये जीव नहीं हैं । सो यहाँ यह जिज्ञासा होनी प्राकतिक ही है कि फिर वास्तवमें किस लक्षण वाला जीव है याने जीवका यथार्थस्वरूप क्या है ? इसके समाधान में इस गाथाका अवतार हुअा है ।
तथ्यप्रकाश-(१) पुद्गलद्रव्यसे भिन्न होनेके कारण, पुद्गलद्रव्यके गुणोंसे व पर्यायों से भिन्न होनेके कारण, पुद्गल द्रव्येन्द्रियका स्वामी न होने के कारण, स्वभावतः भावेन्द्रियसे छूना प्रादि न होनेके कारण, सर्वसंवेदनस्वभाव होनेसे केवल स्पर्शज्ञान प्रादि किसी ज्ञानपरिगाममय होकर न छूने आदिके कारण, स्पर्श प्रादिको जानकर भी उससे तन्मय न होनेके कारण जीव स्पर्शादिरहित व शब्दादिरहित है । (२) यद्यपि जीवका संसारदशामें शरीरप्रमाण श्राकार है, मुस्तदशामें घट-बढ़का कारणभूत कर्म न रहनेसे कुछ न्यून घरमशरीरके प्रमारए प्राकारं है, तथापि जीवका स्वयं सहज निरपेक्ष कोई प्राकार नहीं है । (३) प्रात्मा स्वसंवेदनप्रत्यक्षगम्य है वह अनुमानादि प्रमाणसे ग्रहणमें नहीं आता । (४) प्रात्मा चैतन्यस्वभावमय है ।
• सिद्धांत-(१) प्रात्मा परद्रव्य, क्षेत्र, काल, भावसे नहीं है । (२) प्रात्मा जयप्रमाणातीत निर्विकल्पस्वसम्वेदनसे गम्य है । (३) आत्मा चैतन्यस्वभावमात्र है।