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जीवाजीवाधिकार
१११ साधारणकसंवेदनपरिणामस्वभावत्वात्केवलरूपवेदनापरिणामापन्नत्वेनारूपणात्, सकलज्ञेयज्ञा. यकतादात्म्यस्य निषेधाद्रूपपरिच्छेदपरिणतत्वेपि स्वयं रूपरूपेणापरिणमनाच्चारूपः । तथा पुदगलद्रव्यादन्यत्वेनाविद्यमानगंधगुणत्वात् पुद्गलद्रव्यगुरणेभ्यो भिन्नत्वेन स्वमगंधगुणत्वात् परमाथतः पुद्गलद्रव्यस्वामित्वाभावाद् द्रव्येन्द्रियावष्टंभेनागंधनात्, स्वभावतः क्षायोपशमिकभावाभावाद्भायेन्द्रियावलम्बेनागंधनात सकलसाधारणकसम्वेदनपरिणामस्वभावत्वात्केवलगंधवेदनापरिणामापन्नत्वेनागंधना सकलयशासकलादासस्य निवागवार छेन्परिणतत्वेपि स्वयं गंधरूपेणापरिणमनाच्चागंधः । तथा पुद्गलद्रव्यादन्यत्वेनाविधमानस्पर्शगुणत्वात् पुद्गलद्रव्यगुणेभ्यो भिन्नत्वेन स्वयमस्पर्शगुणत्वात् परमार्थतः पुद्गलद्रव्यस्वामित्वाभावाद् द्रव्येन्द्रियावष्टंभेनास्पर्शनात स्वभावतः क्षायोपशमिकभावाभावाद् भावेन्द्रियावलम्बनास्पर्शनात्सकलसाधाररणकसंवेदनपरिणामस्वभावत्वात् केवलस्पर्शवेदनापरिणामापन्नत्वेनास्पर्शनात सकलज्ञेयज्ञायकतादात्म्यस्थ निषेधात् स्पर्शपरिच्छेदपरिणसत्वेपि स्वयं स्पर्शरूपेणापरिणमनाच्चास्पर्शः । तथा पुद्गलद्रव्यादन्यत्वेनाविद्यमानशब्दपर्यायत्वात् पुद्गलद्रव्यपर्यायेभ्यो भिन्नत्वेन स्वयमशब्दपर्यायधातुसंज–रस आस्वादनाक्रंदनयोः, सद्द आह्वाने, जाण अवबोधने, मगह ग्रहणे, सम् हा गतिनिवृत्तौ तृतीय अन्य होनेके कारण, कषायका समूह जो भावकभाव है व व्यक्त है उससे अन्य होनेके कारण, चित्सामान्यमें चैतन्यकी सब व्यक्तियो अन्तर्भूत होनेके कारण, क्षणिक व्यक्तिमात्र न होनेके कारण, व्यक्त व प्रध्यक्त और दोनों मिले हुए मिश्र भाव इसके प्रतिभासमें पाते हैं तो भी केवल व्यक्त भावकी ही नहीं स्पर्शता इस कारण और पाप ही बाह्य आभ्यंतर प्रकट अनुभूयमान है तो भी व्यक्तभावसे उदासीन (दूरवर्ती) प्रद्योतमान है, इस कारण जीव अव्यक्त कहा जाता है ।।६।। इस तरह छः हेतुओं द्वारा अव्यक्त सिद्ध किया। इसी प्रकार रस, रूप, गंध, स्पर्श, शब्द, संस्थान व व्यक्तपनाका प्रभाव स्वरूप होनेपर भी स्वसंवेदनके बलसे पाप प्रत्यक्षगोचर होनेसे अनुमेय मात्रके प्रभावसे प्रलिंगग्रहण कहा जाता है। अपने अनुभवमें पाये, ऐसे चेतनागुरण द्वारा सदा अंतरंगमें प्रकाशमान है, इस कारण चेतनागुण वाला है । जो चेतनागुण समस्त विप्रतिपत्तियोंका (जीवको अन्य प्रकार माननेका) निषेध करने वाला है, जिसने अपना सर्वस्व भेदज्ञानी जीवोंको सौंप दिया है, जो समस्त लोकालोकको प्रासीभूत कर मत्यन्त सुखी हो उस तरह सदा किंचिामात्र भी चलायमान नहीं होनेसे अन्य द्रव्यसे साधारण नहीं है, इस. लिये असाधारण स्वभावभूत है। ऐसे स्वयं अनुभूयमान चैतन्य गुणके द्वारा निस्य हो अंत:प्रकाशमान होनेसे चेतनागुरण वाला है । ऐसा यह भगवान् निर्मल प्रकाश वाला जीव इस लोक मैं टंकोत्कीर्ण भिन्न ज्योतिस्वरूप विराजमान है।