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बन्दाधिकार चनापि अन्योऽन्यस्य जीवितं कुर्यात् । अतो जीवयामि जीव्ये चेत्यध्यबसायो ध्र वमज्ञानं ।। २५१-२५२ ॥ धारणे, भण शब्दार्थः, इंदाज दाने । पदविवरण-आऊदयेण आयुरुदयेम-तृतीया एक० 1 जीवदि जीवतिवर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । जीवो जीवः-प्रथमा एकवचन । एवं अव्यय । भणति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहु· । सव्वण्हू सर्वज्ञाः-प्रथमा बहु० । आउं आयु:-द्वितीया एक० । देसि ददासि-वर्तमान लट् मध्यम पुरुष एकवचन क्रिया । तुम त्वं-प्र० ए० । दिति ददति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहु० । तुहं तुभ्यंचतुर्थी एकवचन । ते-षष्ठी एकवचन ।। २५१-२५२ ।। जिलाता हूं या परजीवोंके द्वारा में जिलाया जाता हूं यह अध्यवसाय होना निश्चित अज्ञान
सिद्धान्त---(१) आयुकर्मके उदयके निमित्तसे देहसयोग होता है । (२) जीवनाध्यवसायविषयक अज्ञान भाव जीवका जीवमें स्वयं के परिणामसे होता है ! .
दृधि ....... निविष्टि (५३२- अनिश्चयनय (४७) ।
प्रयोग --किसी जीवके जीवनविषयक कर्तृत्वाध्यवसायसे किसी अन्यका जीवन नहीं होता ऐसा जानकर जीवन कर्तृत्वाध्यवसायको छोड़कर सहजशुद्धात्मत्वको भावनामें रत होने का पौरुष करना ।। २५१-२५२ ।।
दुःख-सुख करनेके अध्यवसायको भी यही गति है--[यः] जो जीव [इति मन्यते तु] ऐसा मानता है कि मैं [आत्मना] अपने द्वारा [सत्स्वान] परजीवोंको [दुःखितखितान्] दुःखी सुखी [करोमि] करता हूं [स मूढः] वह मूढ याने मोही है, [अज्ञानी] अज्ञानी है [तु] किन्तु जो [अतः] इससे [विपरीतः] विपरीत है वह [ज्ञानो] ज्ञानी है।
तात्पर्य--कोई भी जीव अपने भाव करनेके सिवाय अन्य कुछ नहीं कर सकता, किंतु मोही जीव अज्ञानसे ऐसी मान्यता करता है कि मैं अमुक जीवको सुखो या दुःखी करता हूं।
____टीकार्थ—परजीवोंको मैं दुःखी और सुखी करता हूं तथा परजीव मुझे सुखी व दुःखी करते हैं ऐसा अध्यबसाय निश्चयसे अज्ञान है और जिसके ऐसा अज्ञान है यह अमानोपनके कारण मिथ्यादृष्टि है तथा जिसके यह अज्ञान नहीं है वह ज्ञानोपनके कारण सम्यग्दृष्टि है। भावार्थ- मैं परजीवको सुखी-दुःखी करता हूं, यह मानना प्रजान है । जिसके यह मान्यता वह अज्ञानी है तथा जिसके यह विपरीत मान्यता नहीं है वह ज्ञानी है, सम्यग्दृष्टि है।
प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथाद्वयमें यह बताया गया था कि जीवमाध्यवसाय मज्ञानभाव वस है ? अब इस गाथा पराया 18 किस पुल के समयमासको भी यही हालत है याने यह अध्यवसाय भी प्रज्ञान है।