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समयसार
कथमयमध्यबसायोऽज्ञानमिति चेत् ?
श्राऊदयेण जीवदि जीवो एवं भांति सव्वण्हू । अाउं च ण देसि तुमं कहं तए जीवियं कयं तेसिं ॥२५१॥ आऊदयेण जीवदि जीवो एवं भणंति सब्बराहू । अाउं च ण दिति तुहं कहं णु ते जीवियं कयं तेहिं ॥२५२॥ (युग्मम्)
आयु उक्ष्यसे जोना, जीवोंका हो जिनेश यह कहते । आयु नहीं तुम येते, कैसे जीवित भि कर सकते ॥२५१॥ प्रायु उदयसे जीना, जीवोंका हो जिनेश यह कहते ।
आयु न की जा सकती, फिर उनसे जीधना कसे ॥२५२।। आयुरदयेन जीवति जीव एवं भणंति सर्वज्ञा: । आयुश्च न ददासि त्वं कथं त्वया जीवितं कृतं तेषां ।।२५।। आयुरुन्द्रयेन जीवति जीव एवं भणति सर्वज्ञाः । आयुश्च न ददति तुभ्यं कथं नु ते जीवितं कृतं तैः ।।२५२।।
जीवितं हि तावज्जीवानां स्वायुःकर्मोदयेनैव, तदभावे तस्य भावयितुमशक्यत्वात् । प्रायुःकर्म च नान्येनान्यस्य दातुं शक्यं तस्य स्वपरिणामेनैव उपाय॑माणत्वात् । ततो न कथं.
नामसंझ-आऊदय, जीव, एवं, सव्वाहु, आउ, च, ण, तुम्ह, कहं, तुम्ह, जीविय, कय, त, आऊदय, जीव, एवं, सब्वाह, आउ, च, ण, तुम्ह, जीविय, कय, त । धातुसंज्ञ--जीव प्राणधारणे, भण कथने, दा दाने । प्रातिपदिक-आयुरुदय, जीव, एव, सर्वज्ञ, आयुष्, च, ण, युष्मद्, कथं, युष्मद, जीवित, कृत, तत्, भायुरुदय, जीब, एवं, सर्वश, आयुष्, कथं, कथं, तु, युष्मद, जीवित, कृत, तित् । मूलधातु-जीव प्राणणामोसे ही उपजना होता है इस कारण दुसरा दूसरेका जीवन किसी तरह भी नहीं कर सकता। अतः मैं परको जिलाता हूं तथा परके द्वारा मैं जिलाया जाता हूँ ऐसा अध्यवसाय निश्चयसे अज्ञान है । भावार्थ-जैसे मरणका अध्यवसाय अज्ञान है ऐसे ही जीवनका अध्य. वसाय भी अज्ञान है।
प्रसंगविवरण- अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि हिंसाध्यवसायका विपक्षभूत जीवनाध्यवसाय भी प्रज्ञान है। अब इन दो गाथानोंमें बताया गया है कि जीवनाध्यवसाय अज्ञानभाव कैसे है ?
तय्यप्रकाश-(१) जीवन अपने प्रायुकर्मके उदयसे होता है । (२) आयुकर्मका क्षय हुए बिना जीवन नहीं हो सकता । (३) किसीको प्रायुकर्मका देना अन्य जीवके द्वारा नहीं हो सकता । (४) प्रायुकर्म तो अपने परिणामसे ही अजित होता है । (५) अन्य जीवके द्वारा अन्यका जीवन किया जाना अशक्य है। (६) उक्त कारणोंसे यह सिद्ध है कि मैं परजीवोंको