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________________ बन्धाधिकार सोऽज्ञानित्वान्मिथ्याष्टिः । यस्य तु नास्ति स ज्ञानित्वात् सम्यग्दृष्टिः ।। २५० ।। रीत । मूलधातु-मन ज्ञाने दिवादि, जीव प्राणधारणे स्वादि । पदविधरण-- जो य-प्रथमा एकवचन । मण्णदि मन्यते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकल क्रिया । जीवेमि जीवधामि-वर्तमान लट् उत्तम पुरुप एक णिजत किया । जीविज्जामि जीव्ये-वर्तमान लट् उत्तम पुरुष एक कर्मवाच्य क्रिया । च-अव्यय । परेहि परः तृतीया बहु । सत्तेहिं सत्व:-तृ० बहु० । सो स:-प्रथमा एक० । मुढो मूढः- प्रथमा एक० । अणगी अज्ञानी-प्रथमा एक० । णाणी ज्ञानी-प्रथमा एक ! एत्तो अत:-अव्यय । दुतु-अव्यय । विवरीदो विपरीत:-प्रथमा एकवचन ।। २५० ॥ तथ्यप्रकाश--(१) अन्य जीवोंको मैं जिलाता है यह अध्यवसाय अज्ञान है । (२) अन्य जीवोंके द्वारा मैं जिलाया जा रहा हूं यह अध्यवसाय भी अज्ञान है । (३) जिसके मिथ्या अध्यवसाय है वह मिथ्यादृष्टि है । (४) जिसके मिथ्या अध्यवसाय नहीं है वह सम्यग्दृष्टि है । (५) ज्ञानी जीव तो जीवनमरणविषयक अज्ञान व रागद्वेष न रखकर सहजशुदात्मत्वकी भावनासे उत्पन्न परम प्रानन्दके स्वादमें रत रहता है । सिद्धान्त-(१) जीवनाध्यवसाय भी कर्मबन्धका निमित्त कारण है । दृष्टि--१- निमित्तत्वदृष्टि (५३) । प्रयोग–बन्धके कारणभूत इस अज्ञानमय जीवनाध्यबसायको भी छोड़कर निज सहज शुद्धात्मत्वको भावनामें उपयोग लगाना ।। २५० ।। प्रश्न---यह जिलानेका अध्यवसाय प्रज्ञान क्यों है ? उत्तर----[जीवः] जीव [आयुरुदयेन] आयुकर्मके उदयसे [जीवति] जीता है [एवं] ऐसा [सर्थज्ञाः] सर्वज्ञदेव [भरगति] कहते हैं, परन्तु [स्व] लू [आयुः च] परजीबको आयुकर्म [न वदासि] नहीं देता तो त्वया] तुने [तेषां] उन परजीवोंको [जोषितं] जीवित [कथं कृतं कैसे किया ? [च] और [जीवः] जीव [मायुरुदयेन] आयुकर्मके उदयसे [जीवति] जोता है [एवं] ऐसा [सर्वज्ञाः सर्वज्ञदेव [भरपंति] कहते हैं सो हे भाई परजीव [सव प्रायुः] तुझे मायुकर्म [न ददति नहीं देते [नु] तो [तः] उनके द्वारा [तव जीवितं] तेरा जीवन [कथं कृतं कैसे किया गया ? तात्पर्य-प्रायुकर्मके उदयसे ही जीवन होता है, अतः किसी परके द्वारा अन्य परका जीवन मानना अज्ञान है। टोकार्थ--निश्चयत: जोवोंका जीवित रहना अपने श्रायुकर्मके उदयसे ही है, क्योंकि यदि प्रायुके उदयका प्रभाव हो तो उसका जीवित होना अशक्य है । तथा अपना आयुकर्म किसी दूसरेके द्वारा किसी दूसरेको नहीं दिया जा सकता, क्योंकि उस आयुक्रर्मका अपने परि
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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