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समयसार जीवनाध्यवसायस्थ तद्विपक्षस्य का बार्ता ? इति चेत्
जो मण्णदि जीवेमि य जीविज्जामि य परेहि सत्तेहिं । सो मूढो अण्णाणी णाणी एत्तो दु विवरीदो ॥२५॥
परसे मैं हैं जीवित, परजीवोंको भि में जिलाता है।
यों माने अज्ञानी, इससे विपरीत है ज्ञानी ॥२५०॥ यो मन्यते जीवयामि च जीव्ये चापरः सत्त्वः । स मूढोऽज्ञानी ज्ञान्यतस्तु विपरीतः ।। २५० ।।
परजीवानह जीबयामि परजीवीव्ये चाहमित्यध्यवसायो ध्र वमज्ञानं स तु यस्यास्ति नामसंज्ञ-ज, य, पर, सत्त, त, मुढ, अण्णाणि, पाणि, एतो, दु, विवरीद । धातुसज्ञ-मन्न अवबोघने, जीव प्राणधारणे । प्रातिपविक-यत्, च, पर, सत्त्व, तत्, मूड, अज्ञानिन्, ज्ञानिन्, अत:, तु, दिप
प्रयोग—किसी जीवके हिंसाविषयक अध्यवसायसे किसी अन्यका मरण नहीं होता, ऐसा जानकर परको मारता हूं या परके द्वारा मैं मारा जाता हूं। इस मिथ्या अध्यवसायको छोड़ना ।। २४८-२४६ ।।
प्रश्न-~मरणका अध्यवसाय प्रज्ञान है यह तो जान लिया, परन्तु उस मरका प्रतिपक्षो जो जोनेका अध्यवसाय है उसकी क्या बात है ? उत्तर-[यः] जो जीव [मन्यते] यह मानता है कि [जीवयामि] मैं एरलीलों को जिलाता हूं चि] और [परैः सत्त्वः च] और परजीवोंके द्वारा [जीव्ये] मैं जोवित किया जा रहा हूं [स मूढः] वह मूढ है [अज्ञानी] प्रशानी है [तु] परन्तु [अतः] जो इससे [विपरीतः विपरीत है [ज्ञानी] वह ज्ञानी है याने जो किसीके द्वारा किसी अन्यका जीवन नहीं मानता वह झानी है ।
तात्पर्य-किसी अन्यके द्वारा किसी अन्यका नीवन मानना भी अजान है, क्योंकि जीवन अपने-अपने आयुकर्मके उदयसे ही होता है।
टीकार्थ--परजीवोंको मैं जिलाता हूं और परजीवोंके द्वारा मैं जीवित रहता हूं ऐसा प्राशय निश्चयसे अज्ञान है जिसके यह प्राशय हो वह जीव अमानीपन के कारण मिथ्या दृष्टि है पौर जिसके ऐसा अध्यवसाय नहीं है वह ज्ञानीपनके कारण सम्यग्दृष्टि है । भावार्थ--ऐसा मानना कि मुझे पर जीव जिलाते हैं और मैं परजीवको जिलाता हूं. यह अज्ञान है । जिसके मशान है वह मिथ्यादृष्टि है, जिसके वस्तुस्वातन्त्र्य व यथार्थ निमित्तनैमित्तिक भावका ज्ञान है वह ज्ञानी सम्यग्दृष्टि है।
प्रसंगधिवरण-अनन्तरपूर्व गाथाद्वयमें हिंसाविषयक अध्यवसायको अज्ञानपना सिद्ध किया था । अब इस गाथामें हिसाध्यवसायके विषयभूत जीबनाध्यवसायका अज्ञानपना बताया