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बन्धाधिकार : कर्म च नान्येनान्यस्य हतु शक्यं तस्य स्वोपभोगेनैव क्षीयमाणत्वात् । ततो न कथं चनापि, अन्योऽन्यस्य मरणं कुर्यात् । ततो हिनस्मि हिस्ये चेत्यध्यवसायो ध्र वमज्ञानं ॥२४८-२४६।। तत्, आयु, क्षय, मरण, जीव, जिनवर, प्रज्ञप्त, आयुष्, न, युष्मद्, कथं, युष्मद्, मरण, कुत, तत् । मूलधातु-हत्र हरणे भ्वादि । पदविवरण-आउखयेण आयु:क्षयेन-तृतीया एक० । मरणं-प्रथमा एक जीवाणं जीवानां-षष्ठी बहु । जिणवरेहिं जिनवरैः-तृतीया बहु० । पण्णत्तं प्रज्ञप्त-प्रथमा एक० । आउं आयु:-द्वि० ए० । ण न-अव्यय । हरेसि हरसि वर्तमान लट् मध्यम पुरुष एक० । तुम त्वं-प्रथमा एक० । कह कथं-अव्यय । ते त्वया-तृ० ए० मरण-प्र० ए० । वयं कृत-प्र० ए. । तेसि तेषां-षष्ठी बहु० । आउपखयेण आयुःक्षयेन-तृ० ए० । मरणं--प्रथमा एक । जीवाणं जीवाना-पाठी बहु । जिणवरेहि जिनबर:-- तृ० बहु० । पण्ण तं प्रज्ञप्त-प्र० ए० । आउं आयु:-द्वि० एक० । ण न अव्यय । हरति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहुवचन क्रिया । तुहं तव-षष्ठी एक० । मरण-प्र० ए० । कयं कृतं-प्रथमा एकवचन कृदंत क्रिया। तेहिं तै:-तृतीया बहुवचन ।। २४१-२४६ ।। को मारता हूँ तथा परजीवके द्वारा मैं मारा जाता हूं ऐसा अध्यवसाय याने अभिप्राय करना निश्चयसे अज्ञान है । भावार्थ- जैसी मान्यता हो, उस रूप कार्य न हो, बात न हो वही प्रज्ञान है । न तो परके द्वारा अपना मरण होता और न अपने द्वारा परका मरण होता, फिर भी कोई प्राणी किसीके द्वारा किसी अन्यका मरण मानता है यही प्रज्ञान है । यह कथन निश्चयसे है । पर्यायका व्यय होनेको मरण कहते हैं, वहाँ प्रायुक्षयके निमित्तसे मरण कहना व्यवहारनयसे है । और परजीवोंमें इसने इसको मारा, यह कहना उपचारसे है । यहाँ स्वच्छंदत्ता नहीं समझना, किन्तु जो निश्चयको नहीं जानते उनका प्रज्ञान मेटनेको यह विवरण दिया है ताकि जानें कि हिंसाका भाव करना व्यर्थ है, अनर्थ है ।
प्रसंगविवरण--प्रनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि हिंसाविषयक अध्यवसान अज्ञानमय भाव है । अब इन दो गायावोंमें बताया है कि यह अध्यवसाय प्रज्ञानरूप क्यों है ?
तथ्यप्रकाश---(१) मरण अपने प्रायुकर्मके क्षयसे होता है। (२) प्रायुकर्मका क्षय हए बिना मरण नहीं हो सकता। (३) किसीके प्रायुकर्मका हरण किसी अन्य के द्वारा नहीं हो सकता । (४) आयुकर्म तो अपने उपभोगसे ही क्षीण होता है । (५) अन्य जीवके द्वारा अन्य का मरण किया जाना अशक्य है । (६) उक्त कारणोंसे यह प्रसिद्ध है कि मैं परजीवोंको मारता हूं व परजीवोंके द्वारा में मारा जाता हूं यह अभिप्राय होना निश्चित अज्ञान है।
सिद्धान्त-(१) आयुकर्मके क्षयके निमित्तसे देहत्यागरूप मरण होता है । (२) अध्यबसाय जीवका जीवमें स्वयंके अज्ञानभावसे होता है ।
दृष्टि -१- निमित्तदृष्टि (५३) । २- प्रशुद्धनिश्चयनय (४७)।