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समयसार
कथमयमध्यवसायोऽज्ञान ? इति चेत्--
थाउक्स्त्रयेण मरणं जीवाणं जिणवरेहिं पण्णुतं ।
आउंण हरेसि तुमं कह ते मरणं कयं तेसि ॥२४॥ अाउक्खयेण मरणं जीवाणां जिणावरोहिं पण्णत्तं । अाउं न हरंति तुहं कह ने मरणं कयं तेहिं ॥२४॥
आयुविलयसे मरना, जीवोंका हो जिनेश यह कहते । प्रायु नहीं तुम हरते, फिर कैसे घात कर सकते ॥२४॥ आयुबिलयसे मरना, जीवोंका हो जिनेश यह कहते ।
आयु हो जाती नहि, किमि उनसे घात हो सकता ॥२४॥ आयुःक्षयेण मरणं जीवाना जिनवरैः प्रज्ञप्त। आयुन हरसि त्वं कथं त्वया भरणं कृतं तेषां ।। २४८॥ आयुःक्षयेण मरणं जोवानां जिनवरः प्रज्ञप्तं । आयुर्न हरति तव कथं ते मरणं कृतं तः ॥ २४६ ।।
मरणं हि तावज्जीवानां स्वायुःकर्मक्षयेणैव तदभावे तस्य भावयितुमशक्यत्वात् स्वायु:
नामसंज--आउनस्वय, मरण, जीव, जिणवर, पण्णत्त, आउ, ण, तुम्ह, कह, तुम्ह, मरण, कय, त, आडक्यय, मरण, जीव, जिणवर, पण्णत्त, आउ, ण, तुम्ह, कह, तुम्ह, मरण, कय, त। धातुसंज्ञ-- हर हरणे । प्रातिपदिक - आयुक्षय, मरण, जीव, जिनवर, प्रशप्त, आयुष्, न, युष्मद्, कथं, युष्मद्, मरण, कृत, कहा है सो यह मानना कि मैं परजीवको मारता हूं यह प्रज्ञान है, क्योंकि [तेषां] उन परजीवोंके [आयुः] अायुकर्मको [त्वं न हरसि] तू नहीं हरता स्थिया] तो तूने [मरणं] उनका मरण [कथं कृतं] कैसे किया ? तथा [जीवानां] जीवोंका [मरणं] मरण [प्रायुःक्षयेण] प्रायुकर्मके क्षयसे होता है ऐसा [जिनबरैः] जिनेश्वर देवोंने [प्रजप्तं] कहा है सो मैं परजीवों से मारा जाता हूं यह मानना प्रज्ञान है, क्योंकि परजीव तयतेरे [आयुः] आयुकर्मको [न हति] नहीं हरते, इसलिये [तैः] उनके द्वारा [ते मरण] तेरा मरण [कथं कृतं] कैसे किया गया?
तात्पर्य-किसीके द्वारा किसी अन्यका मरण मानना अज्ञान है, क्योंकि मरण तो अपनी-अपनी आयुके क्षयसे ही होता है ।।
__टीकार्य-निश्चयसे जीवोंका मरण अपने प्रायुकर्मके क्षयसे ही होता है, क्योंकि प्रायुकर्मक्षयका अभाव होनेपर मरणका हुवाना प्रशस्य है। और अन्यका आयुकर्म अन्यके द्वारा हरा जाना शवय नहीं है, क्योंकि आयुकर्म तो अपने उपभोगसे ही क्षयको प्राप्त होता है । इस कारण कोई अन्य किसी अन्यका मरण किसी प्रकार भी नहीं कर सकता । अतः मैं परजीव