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समयसार दुःखसुखकरणाध्यवसायस्यापि एषव गतिः
जो अप्पणा दु मण्णदि दुःखिदसुहिदे करेमि सत्तेति । सो मूढो अण्णाणी णाणी एत्तो दु विवरीदो ॥२५३॥ ' जो स्वयं इतर जीवों को करता है सुखो दुखी माने ।
वह मोही अज्ञानी, इससे विपरीत है ज्ञानी ॥२५३॥ य यात्मना तु मन्यते दुःखितसुखितान् करोमि सत्त्वानिति । स मूढोज्ञानी ज्ञान्यतस्तु विपरीत: ।।२५३॥
परजीवानहं दुःखितान् सुखितांश्च करोमि, परजीवःखितः सुखितश्च क्रियेह, इत्यध्यवसायो ध्र वमज्ञानं ! स तु यस्यास्ति सोऽज्ञानित्वान्मिथ्यादृष्टिः । यस्य तु नास्ति स ज्ञानित्वात् सम्यग्दृष्टिः ॥ २५३ ।।
नामसंज्ञ-ज, अप्प, दु, दुःखिदसुहिद, सत्त, इत्ति, त, मूढ, अण्णाणि, गाणि, एत्तो, दु, विवरीद । घातुसंज्ञ--मन्न अवबोधने, कर करणे । प्रातिपदिक- यत्, आत्मन्, तु, दुःखित सुखित, सत्त्व, इति, तत्, मृट, अज्ञानिन्, शानिन्, अतः, तु, विपरीत । मूलधातु-मन ज्ञाने, डुकृञ् करणे । पदविवरण-जो यःप्रथमा एकवचन । अग्पणा आत्मना-तृतीया एकः । दु तु-अव्यय । मभ्णादि मन्यते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । दु:खिदसुहिदे दुःखितसुखिते-द्वि० बहु०.। करेमि करोमि-वर्तमान लट् उत्तम पुरुष एक० किया। सत्ते सत्यान्--द्वि० बहु० । इति-अव्यय । सो सः-प्र० ए० । मूढो मूढः-प्र० एक० । अण्णाणी अज्ञानी-प्र० ए. पाणी ज्ञानी-प्रथमा एक० । एत्तो अत:-पंचम्पर्थे अन्या ! दुमय : दिवरीयो विपरीत:-प्रथमा एकवचन ।। २५३ ॥
तथ्यप्रकाश--(१) परजीवोंको मैं दुःखी करता हूं, यह प्रध्यवसाय प्रज्ञान है । (२) परजीवोंको मैं सुखी करता हूं, यह अध्यवसाय प्रज्ञान है । (३) परजीबोंके द्वारा मैं दुःखी किया जाता हूं, यह अध्यवसाय प्रज्ञान है । (४) परजीवोंके द्वारा मैं सुखी किया जाता हूं, यह अध्यवसाय अज्ञान है । (५) जिसके दुःस्वकर्तृत्वाध्यवसाय है वह अज्ञानीपनेके कारण मिथ्यादृष्टि है । (६) जिसके सुखकर्तृत्वाध्यवसाय है वह प्रशानीपनेके कारण मिथ्यादृष्टि है । (७) जिसके दुःखकर्तृत्वाध्यवसाय नहीं है वह ज्ञानीपनेके कारण सम्यग्दृष्टि है । (८) जिसके सुख कर्तृत्वाध्यवसाय नहीं है वह ज्ञानीपनेके कारण सम्यग्दृष्टि है।
सिद्धान्त-(१) दुःखसुखकरणाध्यवसाय भी कर्मबन्धका निमित्त कारण है । दृष्टि- १- निमित्तत्वदृष्टि (५३)।'
प्रयोग-बन्धके कारणभूत इस दुःखसुखकरणाध्यवसायको भी छोड़कर निज सहज शुद्धात्मस्वरूपमें उपयोग लगाना ।। २५३ ।।
प्रश्न - दुःख सुख देते हुए अध्यवसाय प्रज्ञान कैसे है ? उत्तर- [यदि] यदि [सर्वे