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________________ विशुद्धताधिकार ६४३ ज्ञानचारित्रस्थितित्वरूपं स्वसमयमवाप्प मोक्षमार्गमात्मन्येव परिणतं कृत्वा समवाप्तसम्पूर्ण वि ज्ञानघनभाव हानोपादानशून्यं साक्षात्समयसारभूतं परमार्थरूपं शुद्धं ज्ञानमेकमेव स्थितं द्रष्टव्यं ॥ अन्येभ्यो व्यतिरिक्तमात्मनियतं विभ्रत्पृथग्वस्तुतामादानोज्झनशून्यमेतदमलं ज्ञानं तथावस्थितं । मध्यार्धत विभागमुक्त सहजस्फारप्रभाभासुरः शुद्धज्ञानघनो यथास्य महिमा नित्योदितस्तिष्ठति ।। २३५ ।। उन्मुक्तमुन्मोच्यमशेषतस्तत्तथात्तमादेयमशेषतस्तत् । यदात्मनः संहृतसर्वशक्तेः पूर्णस्य संधारणमात्मनीह ॥ २३६ ॥ व्यतिरिक्तं परद्रव्यादेवं ज्ञानमवस्थितं । कथमाहारकं तत्स्याद्येन देहोऽस्य शक्यते ॥ २३७॥ ।। ३६०-४०४ ॥ स्पर्श द्वितीया एक० । अधम्मो अधर्मः - प्रथमा फार्स । सो रस: - प्रथमा एक० । रसं द्वि० एक० । फासो स्पर्शः प्रथमा एक कम्मं कर्म-प्रथमा एक कम्मं कर्म - द्वितीया एक० । धम्मं धर्म - द्वितीया एक० एक० । अधम्मं अधर्मं द्वि० एक० । कालो कालः- प्र० ए० । कालं द्वि० ए० । आयासं आकाशं प्र० एक० । आयासं आकाश - द्वितीया एक अज्भवमाणं अध्यवसानं प्रथमा एक० तथा द्वि० ए० । जम्हा यस्मात् - पंचमी एक | जाणइ जानाति - वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । णिच्च नित्यं - अव्यय । जीवो जीवः - प्र० ए० । णाणओ ज्ञायक :- प्र० एक० 1 पाणी ज्ञानी-प्र० एक० । णाणं ज्ञानं प्र० ए० । जाणयादो शायकात्-पंचमी एक० । अध्बदिरित्तं अध्यतिरिक्तं प्र० एक० । मुरोदव्वं मन्तव्यं - दन्त क्रिया । अब काव्य में कहते हैं कि ऐसे ज्ञानके देह भी नहीं है - व्यतिरिक्तं इत्यादि । अर्थइस प्रकार ज्ञान परद्रव्य से पृथक् अवस्थित है । वह आहारक कैसे हो सकता है ? जिससे कि इसके देहको शङ्का की जा सके । भावार्थ - ज्ञान कर्म नोकर्म आदि सबसे निराला है सो ज्ञानके कर्माहार, नोकमहार, कवलाहार कोई भी शाहार नहीं । सो जो माहारक ही नहीं, उसके देह कैसा ? प्रसंग विवरण - अनन्तरपूर्व गाथात्रिक में कर्मचेतना व कर्मफलचेतनाका संन्यास कराकर ज्ञानमात्र सहजस्वरूपके संचेतनका मार्गदर्शन किया था। अब इस पञ्चदशक में उसी ज्ञानमात्र श्रात्मतत्त्वको समस्त परद्रव्यों व परभावोंसे विविक्त दिखाया गया है । तथ्यप्रकाश- - ( १ ) द्रव्यश्रुत व शब्द अचेतन है पुद्गलद्रव्यकी व्यञ्जनपर्याय है ज्ञान अात्माका शाश्वतस्वरूप है, चेतना है । ( २ ) वर्णं, गन्ध, रस, स्पर्श अचेतन हैं पुद्गलद्रव्यके गुरण हैं, किन्तु ज्ञान श्रात्माका शाश्वतस्वरूप है, चेतनस्वरूप है । ( ३ ) कर्म अचेतन है. कार्माण वर्ग जातिके पुद्गलद्रव्योंकी पर्याय है, किन्तु ज्ञान श्रात्माका शाश्वत स्वरूप है, चेतनस्त्ररूप है । ( ४ ) धर्मद्रव्य, श्रधमंद्रव्य, कालद्रव्य, माकाशाद्रव्य अचेतन हैं भिन्न स्वतंत्र द्रव्य हैं, किन्तु ज्ञान प्रात्मद्रव्यका शाश्वत स्वरूप है चेतनस्वरूप है । ( 2 ) श्रध्यवसानभाव प्रचेतन हैं, कर्मforeferer हैं, किन्तु ज्ञान भ्रात्माका शाश्वतस्वरूप है, चेतनस्वरूप है। (६) ज्ञान जीव
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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