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________________ ६४२ समयसार अर्थ सर्वपरद्रव्यव्यतिरेकेण सर्वदर्शनादिजीवस्वभावाव्यतिरेवेण वा प्रतिव्याप्तिमव्याप्ति च परिहरमागमनादिविभ्रममूलं धर्माधर्मरूपं परसभयमुद्रम्य स्वयमेव प्रव्रज्यारूपमापाद्य दर्शन बहु० क्रिया । रूवं गाणं- प्रथमा एक० । अष्णं णाण अण्णं रूवं अन्यत् ज्ञानं अन्यं रूपं --द्वितीया एकवचन वष्णो वर्ण:- प्रथमा एक० वण्णं वर्ण-द्वितीया एकवचन | गंध:- प्रथमा एक० । गन्धं द्वितीया एक० । जानना । एक तो देखना शुद्धनयके ज्ञान द्वारा इसका श्रद्धान करना है । यह तो अविरत आदि प्रमत्त अवस्था में भी मिध्यात्व के अभाव से होता है। दूसरा देखना यह है कि ज्ञान श्रद्धान हुए बाद बाह्य सब परिग्रहका त्यागकर इसका अभ्यास करना, उपयोगको ज्ञान में हो ठहराना, जैसा शुद्ध नयसे अपने स्वरूपको सिद्ध समान जानकर श्रद्धान किया वैसा ही ध्यान में लेकर एकाग्र चित्तको ठहराना, बार-बार इसीका अभ्यास करना, सो यह देखना श्रप्रमत्त दशा में होता है । इसलिए जहाँ तक ऐसे अभ्याससे केवलज्ञान प्राप्त हो वहाँ तक यह अभ्यास निरन्तर करना । यह देखना दूसरा प्रकार हैं । यहाँ तक तो पूर्ण ज्ञानका शुद्धनयके श्राश्रयसे परोक्ष देखना रहा । श्रौर तीसरा देखना केवलज्ञान प्राप्त हो तब साक्षात् होता है । उस समय सब विभावों से रहित हुया सबको देखने जानने वाला ज्ञान होता है । यह पूर्ण ज्ञानका प्रत्यक्ष देखना है । प्रकार सर्वत्र सिद्ध है कि शाही भरना है। प्रभेदविवक्षा में ज्ञान कहो या ग्रात्मा कहो कुछ विरोध नहीं । अब इस अर्थको कलशरूप काव्य में कहते हैं— अन्येभ्यो इत्यादि । अर्थ - परद्रव्योंसे भिन्न अपने में ही निश्चित पृथक् वस्तुत्व धारण करता हुप्रा, ग्रहण त्यागसे रहित यह रागादिक मलसे रहित ज्ञान उस प्रकार अवस्थित अनुभव में प्राता कि जिस प्रकार मध्य आदि अंत विभागसे रहित, स्वाभाविक विस्ताररूप प्रकाशसे देदीप्यमान शुद्ध ज्ञानघनरूप नित्य उदित रहे । भावार्थ - ज्ञानका पूर्णरूप सबको जानना है । सो जब यह ज्ञान प्रकट होता है तब अपने सर्व ऐश्वर्य के साथ प्रकट होता । इसकी महिमा कोई नहीं बिगाड़ सकता । निरुपाधि ज्ञान सदा निर्वाध उदित रहता है । अब काव्य में कहते हैं कि ऐसे ज्ञानस्वरूप है - उन्मुक्त इत्यादि । श्रर्थ - जिसने सब शक्तियाँ श्रात्मामें ही धारण करना है वही तो छोड़ने योग्य योग्य सन ग्रहण कर लिया है। भावार्थ करनेपर त्यागने योग्य सभी त्यागा गया यह कृतकृत्यपना है । श्रात्माका धारण करना यही कृतकृत्यपना समेट लो हैं, ऐसे पूर्ण श्रात्माका जो सब कुछ छोड़ा है और ग्रहण करने पूर्ण ज्ञानस्वरूप सर्वशक्तिपुञ्ज प्रात्माको धारण और ग्रहण करने योग्य सभी ग्रहण कर लिया गया, --
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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