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________________ ६४१ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार सतो शानजीवयोरेवाव्यतिरेकः । न च जीवस्य स्वयं ज्ञानत्वात्ततो व्यतिरेकः कश्चनापि शङ्क. नीयः । एवं तु सति ज्ञानमेव सम्यग्दृष्टिः, ज्ञानमेव संयमः, ज्ञानमेवांगपूर्वरूपं सुत्र, ज्ञानमेव धर्माधी, ज्ञानमेव प्रव्रज्येति ज्ञानस्य जीवपर्यायरपि सहाव्यतिरेको निश्चय साधितो द्रष्टव्यः । एक० । अण्णं जाणं अण्णं सत्थं अन्यत् ज्ञानं अन्यत्व शास्त्र-द्वितीया एकवचन । टाब्द: ज्ञान-प्रथमा एक० । अपणं णाणं अण्णं शब्दं अन्यत् ज्ञानं अन्यं शब्द-द्वितीया एक । विति बिदलि-वर्तमान लद अल्प पुरुष चाहिये । यो प्रब देखिये-जीव ही एक ज्ञान है; क्योंकि जीव चेतन हैं, इसलिये ज्ञान और जीवमें प्रभेद है । स्वयं ज्ञानस्वरूप होनेसे ज्ञानका जीवके साथ व्यतिरेक कुछ शंकाय नहीं है । ऐसा होनेपर ज्ञान ही सम्यग्दृष्टि है, ज्ञान हो संयम है, ज्ञान ही अंगपूर्वगत गुत्र है । तथा ज्ञान ही धर्म अधर्म है, ज्ञान हो दीक्षा है अथवा निश्चयचारित्र है । इस तरह जीवका पर्यायों के साथ भी अभेद निश्चयसाधित देखना चाहिये । ___अब इस प्रकार सब परद्रव्योंके साथ तो भेदके द्वारा तथा शब दर्शनादि जीव रवभावों के साथ अभेदके द्वारा प्रतिव्याप्ति और अव्यानि दोषको दूर करता था, अनादिविभ्रम. मूलक धर्म अधर्म याने पुण्य पापरूप परसमयको दूर करके, स्वयं ही निश्चयचारित्रलप दीक्षा को पाकर, दर्शनशानचारित्रमें स्थितिरूप स्वसमयको व्यापकर मोक्षमार्गको प्रात्मा ही परिरगत करके जिसने सम्पूर्ण विज्ञानधनस्वभाव पा लिया है ऐसा व त्याग ग्रहग से रहित साक्षात् समयसारभूत परमार्थरूप शुद्ध एक ज्ञान ही अवस्थित हुआ देखना अर्थात् प्रत्यक्ष स्वसम्वेदनसे अनुभव करना। भावार्थ-ज्ञान सब परद्रव्योंसे जुदा और अपने पर्यायोंसे अभेदरूप है, इस कारण मात्माके इस लक्षण में प्रतिव्याप्ति और अव्याप्ति नामके लक्षणदोष नहीं रहते । अ व्याप्ति-- लक्षणका पूरे लक्ष्य में न रहना प्रव्याप्ति है, अति व्याप्ति- लक्षणका लक्ष्य के अलावा प्रलक्ष्य में भी रहना अतिव्याप्ति है । प्रात्माका लक्षण ज्ञान याने उपयोग अन्य प्रचेतन द्रव्यों में नहीं है। इस कारण अतिव्याप्ति दोष नहीं है और उपयोग अपनी सब अवस्थानों में है, इसलिये अव्याप्ति दोष नहीं है । यहाँपर ज्ञान कहनेसे प्रात्मा हो जानना, क्योंकि अभेदविवक्षामें गुण और गुरगीका अभेद है; इसलिये विरोध नही । इस कारण ज्ञान हो कहनेसे छमस्थ ज्ञानी आत्माको पहचान लेता है । अतः अात्मा ज्ञानको ही निरखकर इस ज्ञानमें अनादि अज्ञानज शुभाशुभ उपयोगरूप परसमयकी प्रवृत्तिको दूर करके, सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रमें प्रवृत्तिरूप परिणमनस्वरूप मोक्षमार्गमें प्रात्माको परिणमाकर सम्पूर्ण ज्ञानको जब प्राप्त होता है, तब फिर त्याग ग्रहणके लिये कुछ नहीं रहता । ऐसा साक्षात् समयसारस्वरूप पूर्ण ज्ञान परमार्थभूत शुन्द्ध अवस्थित है उसको देखना । यहाँपर देखना तीन प्रकार
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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