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________________ २४८ समयसार योग उदय यह जानो, जो चेष्टोत्साह होय जीवोंके । शुभ हो तथा अशुभ हो, हेय उपादेय अथवा हो ॥१३४॥ इनके निमित्त होने पर पुद्गल कर्मवर्गरणागत जो । परिषमता पाठ तरह, ज्ञानावरणादि भावोंसे ॥१३५।। कारिणवणागल, वह कर्म जीवनिबद्ध होता जब । तब हो कारण होता, जीव विपरिणामभावोंका ॥१३६॥ अशानस्य स उदयो या जीवानामतत्वोपलब्धिः । मिथ्यात्वस्य तूदयो जीवस्याश्रद्दधानत्वं ।।१३२॥ उदयोऽसंयमस्य तु यज्जीवानां भवेदविरमणं । यस्तु कलुषोपयोगो जीवानां सः कषायोदयः ॥१३३!! तं जानीहि योगोदयं यो जीवानां तु चेष्टोत्साहः । शोभनोऽशोभनो वा कर्तव्यो विरतिभावो वा ।।१३४।। एतेषु हेतुभूतेषु कार्मणवर्गणागतं यत्तु । परिणमतेष्टविध ज्ञानावरणादिभावः ॥१३॥ तत्खलु जीवनिबद्ध कार्मणवर्गणागतं यदा । तदा तु भवति हेतु वः परिणमभावानां ।।१३६॥ . प्रतत्वोपलब्धिरूपेण जाले म्बदमानो प्रज्ञानोदयः । मिथ्यात्वासंयमकषाययोगोदया: कर्महेतवस्तन्मयाश्चत्वारों भावाः । तत्वाश्रद्धानरूपेण ज्ञाने स्वदमानो मिथ्यात्वोदयः अविरमणजीव, तत्, कषायोदय, तत्, योगोदय, यत्, जीव, तु, चेष्टोत्साह, शोभन, अशोभन, बा, कर्तव्य, विरतिभाव, वा, एतत्, हेतुभूत, कार्मणवर्गणागत, यत्, तु, अष्टविध, ज्ञानावरणादिभाव, तत्, स्खलु, जीवनिबद्ध, कार्मणवर्गणागत, यदा, तदा, तु, हेतु, जीव, परिणामभाव । मूलधातु-शा अवबोधने, डुलभष् प्राप्ती भ्वादि, अ-सम-यम संयमने, अ-वि-रमु रमणे, नि-बध बन्धने, चेण्ट चेष्टायां स्वादि, षह मर्षणे चुरादि, पह धक्यर्थे चक्यर्थस्तृप्तिः दिवादि, शुभ शोभार्थे तुदादि । पदविवरण–अज्ञानस्य-षष्ठी एक० । सः, उदयःप्रथमा एकवचन । या-प्रथमा एक स्त्रीलिङ्ग । जीवाना-षष्ठी बहु० । अतत्वोपलब्धिः -प्रथमा एकवचन । मिथ्यात्वस्य-षष्ठी एक० । तु-अन्यय । उदय:-प्रथमा एकवचन । जीवस्य-षष्ठी एक० । अश्रद्दधानत्वं, उदयः-प्रथमा एक० । असंयमस्य-षष्ठी एक० । तु-अव्यय । यत्-प्रथमा एक० । जीयाना-षष्ठी बहुवचन । व्यापाररूपसे ज्ञान में स्वादरूप होता है, यह योगका उदय है । इन पोद्गलिक मिथ्यात्वादिके उदयस्वरूप चारों भावोंके हेतुभूत होनेपर कार्माणवर्गणागत पुद्गलद्रव्य ज्ञानावरणादि भावोंसे पष्ट प्रकार जो स्वयमेव परिणमता है। वह कर्मवर्गणागत ज्ञानावरणादिक कर्म जब जीवमें निबद्ध होता है, तब जीव स्वयमेव अपने अज्ञानभावसे पर और प्रात्माके एकत्वका निश्चय कर प्रज्ञानमय अतस्वश्रद्धानादिक अपने परिणामस्वरूप भावोंका कारण होता है। भावा--- यहाँ प्रज्ञानभावके भेदरूप जो मिथ्यात्व, अविरत, कषाय, योगरूप परिणाम कहे गये हैं, वे पुदगलके परिणाम हैं और उनका स्वाद अश्रद्धानादिकरूपसे ज्ञानमें माता है ये विभाव ज्ञानावरणादि प्रागामी कर्मबंधके कारण है अर्थात् जीव उन मिथ्यात्वादि भावोंके उदय होनेका निमित पाकर अपने प्रज्ञानभावसे अतत्त्वश्रद्धानादि भावोंके रूपमें परिणमन करता है, सो उव अपने प्रज्ञानरूप भावोंका उपादान कारण यह जीव होता है, निमित्तकारण कर्मविपाक होता है।
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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