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समयसार
ज्वाला च तथा नीरूपस्यात्मनः स्वपराकारावभासिनी ज्ञातृत्व, पुद्गलानां कर्म नोकर्म चेति स्वतःपरतो वा भेदविज्ञानमूलानुभूतिरुत्पत्स्यते तदेव प्रतिबुद्धो भविष्यति ।
कथमपि हि लभते भेदविज्ञान मूलामचलितमनुभूति ये स्वतो वान्यतो वा।
प्रतिफलननिमग्नानन्तभावस्वभावमकुरबदविकाराः संततं स्युस्त एव ॥२१॥१६॥ यावत्--अव्यय । एषा-प्रथमा एक स्त्रीलिङ्ग । खल-अव्यय । बुद्धि:-प्रथमा एक० । अप्रतिबुद्ध:--प्रथमा एक० । भवति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । तावत्-अभ्यय । बत! है।
सिद्धान्त-(१) ज्ञानी सहज अन्तस्तत्त्व में प्रात्मत्व मानता है । (२) प्रशानी परपदार्थ व विभाव में प्रात्मत्व मानता है ।
दृष्टि-१- परमभावग्राहक द्रव्याथिकनय, शुद्धनय (३०, ४६)। २- संश्लिटविजात्युपचरित प्रसद्भूतव्यवहार (१२५)।
प्रयोग—परपदार्थ व परभावोंसे भिन्न मात्माको अविकार चैतन्यस्वरूप निरखकर अपने सहज प्रानन्दका अनुभव करते हुए परम विश्राम पावें ।।१६।।
अब शिष्य प्रश्न करता है कि यह अप्रतिबुद्ध (अज्ञानी) किस तरह पहचाना जा सकता है उसके उत्तररूप गाथा कहते हैं-[यः] जो पुरुष [अन्यत् यत् परद्रव्यं] अपनेसे अन्य जो परद्रव्य [सचित्ताचित्तमिश्रं वा] सचित्त स्त्री-पुत्रादिक, अचित्त धनधान्यादिक, मिश्र ग्रामनगरादिक- इस राबको ऐसा समझे कि [अहं एतत्] मैं यह हूँ [एतत् प्रह] यह सब द्रव्य मैं हूं [एतस्य अहं] मैं इसका हूं [एतत् मम अस्ति] यह मेरा है [एतत् मम पूर्व प्रासीत् यह मेरा पूर्वमें था [एतस्य अहमपि पूर्व प्रासं] इसका मैं भी पहले था [पुनः] तथा [एतत् मम भविष्यति] यह सब मेरा होगा [अहमपि एतस्य भविष्यामि] मैं भी इसका प्रागामी होऊँगा [एतत्त असद्भूतं] ऐसा भूठा [प्रात्मविकल्प] अात्मविकल्प करता है वह [संमूढः] मूढ़ है [तु] किन्तु जो पुरुष [भूतार्थ] परमार्थ वस्तुस्वरूपको [जानन] जानता हुआ [तं] ऐसे झूठे विकल्पको [न करोति] नहीं करता है वह [असंमूढः] मूढ़ नहीं है, ज्ञानी है।
तात्पर्य--परमें व परभावमें प्रात्मत्वका अनुभबन करने वाला अज्ञानी है व सहजसिद्ध चैतन्यमात्र अन्तस्तत्त्वमें प्रात्मत्वका अनुभवन करने वाला ज्ञानी है।
टोकार्थ-जैसे कोई पुरुष ईंधन और अग्निको मिला हुमा देखकर ऐसा झूठा विकल्प करता है कि अग्नि ईंधन है तथा इंधन अग्नि है, अग्निका इंधन पहले था, ईधनको अग्नि पहले थी, अग्निका ईधन आगामी होगा, ईधन की अग्नि प्रागामी होगी, इस तरह ईंधनमें ही