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समयसार भविष्यत्कर्म समस्तं निरस्तसंमोहः । प्रात्मनि चैतन्यात्मनि निष्कर्मणि नित्यमात्मना वर्ते ॥२२८॥ इति प्रत्याख्यानकल्पः समाप्तः । समस्तमित्येवमपास्य कर्म कालिकं शुद्धनयावलंबी। विलीनमोहो रहितं विकारैश्चिन्मात्रमात्मानमथावलंबे ॥२२६॥
___ अथ सकलकर्मफलसंन्यासभावनां नाटयति । विगलंतु कर्मविषतरुफलानि मम भुक्तिमंतरेणेव । संचेतयेऽहमचलं चैतन्यात्मानमात्मानं ॥२३०॥ नाहं मतिज्ञानावरणीयकर्मफलं भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।११ नाहं श्रुतज्ञानावरणीयकर्मफलं भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।२। नाहमवधिज्ञानावरणीयकर्मफलं भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।३. नाहं मनःपर्य यज्ञानाबरणीयकर्मफलं भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।४। नाहं केवल ज्ञानावरणीयकर्मफलं भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।। नाहं चक्षुर्दर्शनावरणीय. कमफल भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतयं ।६। नाहमचक्षुर्दर्शनावरणीयकर्मफलं भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।। नाहमवधिदर्शनावरणीयकर्मफलं भुजे चैतन्यात्मावेदंतो वेदयमानः-प्रथमा एकवचन । कम्मफलं कर्मफलं-द्वितीया एकवचन : सुहिदो सुखित:-प्रथमा एकप्रकार प्रतिक्रमणके समान हो प्रत्याख्यानमें भी ४६ भङ्ग कहे)।
अब इस अर्थको कलशरूप काव्यमें कहते हैं-प्रत्याख्याय इत्यादि । अर्थ-(प्रत्याख्यान करने वाला ज्ञानी कहता है कि) भविष्यके समस्त कर्मोका प्रत्याख्यान (त्याग) करके, जिसका मोह नष्ट हो गया है, ऐसा मैं निष्कर्म अर्थात् समस्त कर्मोसे रहित चैतन्यस्वरूप मात्मामें प्रात्माके द्वारा ही निरंतर बर्त रहा हूं। भावार्थ-निश्चयचारित्रमें प्रत्याख्यानका विधान ऐसा है कि-समस्त प्रागामी कर्मोंसे रहित, चैतन्यको प्रवृत्तिरूप अपने शुद्धोपयोगमें रहना सो प्रत्याख्यान है । इस प्रकार प्रत्याख्यानकल्प समाप्त हुमा ।
अब समस्त कर्मोके संन्यास (त्याग) को भावनाको नचानेके सम्बन्धका कथन उपसंहार कलशरूप काव्यमें करते है--समस्त इत्यादि । अर्थ---पूर्वोक्त प्रकारसे तीनों कालके समस्त कर्मोको दूर करके, शुद्धनयावलम्बी और विलीनमोह में प्रब सर्वविकारोसे रहित चैतन्यमात्र प्रात्माका अवलम्बन करता हूं ॥२२६।।
अब समस्त कर्मफलसंन्यासकी भावनाको नचाते हैं— उसमें प्रथम, उस कथनके समुच्चय अर्थको काव्यमें कहते हैं--विमलंतु इत्यादि । अर्थ-कर्मरूपो विषवृक्षके फल मेरे द्वारा भोगे बिना ही खिर जायें; मैं अपने चैतन्यस्वरूप मात्माका निश्चयतया संचेतन (अनु. भव) करता हूं। भावार्थ-ज्ञानी कहता है कि जो कर्म उदयमें प्राता है उसके फलका में मात्र ज्ञाता द्रष्टा हूं, उसका भोक्ता नहीं इसलिये मेरे द्वारा भोगे बिना ही वे कर्म खिर जाएं,