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________________ ६४६ समयसार मूर्तास्मद्रव्यस्य मूर्तपुद्गलद्रव्यत्वादाहारः ततो ज्ञानं नाहारकं भवत्यतो ज्ञानस्य देहो न शंकनीयः || एवं ज्ञानस्य शुद्धस्य देह एव न विद्यते । ततो देहमयं ज्ञातुनं लिंगं मोक्षकारणं ।।२३८।। ।। ४०६०-४०६ ।। न खलु - अव्यय । सो सः प्रथमा एकवचन । आहारओ आहारक:- प्र० एक० । हवइ भवति - वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन एवं उ ण एव तु न - अव्यय । आहारो आहारः - प्रथमा एक० । मुत्तो मूर्त:लालयमा एक० । सक्कइ शक्यते वर्तमान अन्य० एक० क्रिया । धित्तु गृहीतुं विमोत्तुं विमोक्तुं - हेत्वर्थे कृदन्त अध्यय । परद्दव्वं परद्रव्यं द्वितीया एकवचन । सो को सः कः - प्र० एक० | तस्स तस्य षष्ठी एक० गुणो गुण: पाउगिओ प्रायोगिकः विस्सओ स्रसः - प्रथमा एकवचन । विसुद्ध विशुद्धः चेया चेतयिता सो सः - प्रथमा एकवचन । गिन्हए गह्णाति - वर्तमान लद् अन्य पुरुष एक० क्रिया | fafa किंचित्-अध्यय । विमुंचद विमुंचति- वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । जीवाजीवाण दव्वाण षष्टी बहु० | जीवाजीवयोः द्रव्ययोः षष्ठी द्विवचन ॥ ४०५-४०७ प्रसंगविवरण - अनन्तरपूर्व पंचदशक में ज्ञानको समस्त परद्रव्य व परभावोंसे विविक्त तथा श्रात्मपरिणामोंसे अव्यतिरिक्त बताया गया था। अब इस गाथात्रिक में बताया है कि आत्मा मूर्त है वह पुद्गलद्रव्यका ग्राहारक नहीं हो सकता अतः वह अन्य जीव व सर्व प्रजीव द्रव्योंके ग्रह त्यागसे भी रहित है । तथ्यप्रकाश - १ - ज्ञान न तो स्वयं किसी परद्रव्यको ग्रहण करता है न छोड़ता है । २- ज्ञान किसी प्रायोगिक गुणके सामथ्र्यसे भी किसी परद्रव्यको न ग्रहण करता है, न छोड़ता है । ३ - ज्ञानके द्वारा परद्रव्य न तो ग्रहण किया जा सकता और न छोड़ा जा सकता । ४- परद्रव्य मूर्त पुद्गलद्रव्य अमूर्त ज्ञानका अर्थात् आत्माका महार हो हो नहीं सकता । ५जब ज्ञान पुद्गलका प्रहारक ही नहीं है तो ज्ञानका देह भी नहीं है । ६-जब ज्ञानका देह ही नहीं है तो देहमय वेश ज्ञाता के मोक्षका कारण कैसे होगा ? ७- निश्चयसे ज्ञाता के मोक्षका कारण ज्ञाताका सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्ररूप शुद्ध परिणाम है । सिद्धान्त -- १ - ग्रात्मद्रव्य में किसी भी परद्रव्यका ग्रहण नहीं है । दृष्टि--:- शून्यनय (१७३) । प्रयोग - कैवल्यदशा प्राप्त करनेके लिये गर्वपरद्रव्यों से भिन्न सर्वपरद्रव्योंके श्राहा र से रहित देहरहित केवल ज्ञानमात्र श्रात्मतत्त्वको निरखना ||४०५ - ४०७ ।। er लिङ्गकी मोक्षमताका प्रतिषेध करते हैं:- [ बहुप्रकाराणि ] बहुत प्रकारके [पाखंडिलिगानि ] पाखंडलिंग [वा] अथवा [गृहिलिंगानि] गृहिलिंगोंको [ गृहीत्वा ] धारण करके [झूठा इति वदति ] प्रज्ञानी जन ऐसा कहते हैं कि [ इवं लिगं ] यह लिंग हो [मोक्ष i
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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