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________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार ६४५ आत्मा यस्यामूतों न खलु स आहारको भवत्येवं । आहार: खलु मूर्तों यस्मात्स पुद्गलमयस्तु ।। ४०५ ।। नापि शक्यते गृहीतुं यन्न बिमोक्तुं यच्च यत्परद्रव्यं । स कोऽपि च तस्य गुणो प्रायोगिको स्रसो वापि ।। तस्मात्तु यो विशुद्धश्चेतायता स नंव गृह्णाति किचित् । नैव विमंचात किंचिदपि जीवाजीवयोध्ययोः ।। ज्ञानं हि परद्रव्यं किंचिदपि न गृह्णाति न मुञ्चति प्रायोगिकगुणसामति वस्रसिकगुणसामद्विा ज्ञानेन परद्रव्यस्य गृहोतुं मोक्तु चाशक्यत्वात् । परद्रव्यं च न ज्ञानस्या घेया, त, ण, एव, किंचि, वि, जीवाजीव, दब्ब ! धानुसंश-हव सत्तायां, सक्क सामर्थ्य, गह गहणे, वि ___ मुंच त्यागे, गिव्ह अहणे । प्रातिपदिक- आत्मन्, यत्, अमूर्त, न, खलु, तत्, आहार, एवं, आहार, खलु, मूर्त. यत्, तत्, पुद्गलमय, न, अपि, यत्, परद्रव्य, तत्, कि, अपि, च, तत्, गुण, प्रायोगिक, वैसस, वा, अपि. विशुद्ध, चेतयित, जीवाजीव, द्रव्य । मूलधातु- सत्तायां, शक्ल सामर्थ्य, ग्रह उपादाने, वि मुच्लू मोक्षणे । पदविवरण–अत्ता आत्मा-प्रथमा एकवचन । जस्स यस्य-षष्ठी ए.। अमुत्तो अमूर्तः प्र० ए० । शक्यते] ग्रहण भी नहीं किया जा सकता और छोड़ा भी नहीं जा सकता [स कोपि च तस्य] यह कोई ऐसा हो आत्माका [प्रायोगिकः वापि वस्रसः गुणः] प्रायोगिक तथा वैनसिक गुण है। [तस्मात ] इसलिये [यः विशुद्धः चेतयिता] जो विशुद्ध प्रात्मा है [सः] वह [जीवा. जीवयोः द्रव्ययोः] जीव प्रजीव परद्रव्य में से [किचित् नैव गृह्णाति] किसीको भी न तो ग्रहण ही करता है [अपि काँचत नव विमुञ्चति ] पोर न किसीको छोड़ता है। __ तात्पर्य–मात्मा अमूर्त है वह किसी भी परद्रव्यको न ग्रहण कर सकता और जब ग्रहण ही कुछ नहीं है तो वह छोड़ हो क्या सकता है ? टीकार्य प्रायोगिक अर्थात् परनिमित्तसे उत्पन्न हुए गुणकी सामर्थ्य से तथा वैनसिक याने स्वाभाविक गुणकी सामर्थ्य से ज्ञान के द्वारा परद्रव्यके ग्रहण करने और छोड़नेका असमर्थपना होनेसे ज्ञान परद्रव्यको कुछ भी न ग्रहण करता है और न छोड़ता है । प्रमूर्तिक ज्ञानस्वरूप आत्मद्रव्यके मूर्तिक द्रव्य माहार नहीं है, क्योंकि अमूर्तिकके मूर्तिक पुद्गलद्रव्य आहार नहीं होता। इस कारण ज्ञान प्राहारक नहीं है। अतः ज्ञानके देहकी शंका न करना । भावार्थ- ज्ञानस्वरूप प्रात्मा प्रमूर्तिक है और कर्म नोकर्म रूप पुद्गलमय पाहार मूर्तिक है । सो परमार्थसे पात्माके पुद्गलमय माहार नहीं है। प्रात्माका ऐसा ही स्वभाव है कि चाहे स्वभावरूप परिणमन करे या विभावरूप परिणमन करे, पात्माके अपने ही परिणामका ग्रहण त्याग है, परद्रव्य का ग्रहए त्याग कुछ भी नहीं है । अब कहते हैं कि देहरहित ज्ञानके मोक्षका कारण देह नहीं हैं-एवं ज्ञानस्य इत्यादि । अर्थ- इस प्रकार (पूर्वोक्त प्रकारसे) शुद्ध ज्ञानके देह ही विद्यमान नही है इसलिये जाताके देहमय चिन्ह (भेष) मोक्षका कारण नहीं है ।
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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