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________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार ६४७ पाखंडीलिंगाणि व गिहिलिंगाणि व बहुप्पयाराणि । वित्त वदंति मूढा लिंगमिणं मोक्खमग्गोति ॥४०॥ ण उ होदि मोक्खमग्गो लिंग जं देहणिम्ममा अरिहा । लिंग मुहत्त दंसणणाणचरित्ताणि सेयंति ॥४०६॥ पाखण्डीलिङ्गोंको, अथवा बहुविध गृहस्थ लिङ्गोंको । धारण करि प्रज्ञ कहें. लिनसी मोक्षका नया लिङ्ग नहि मोक्षका ५थ, क्योंकि जिनेशने देहनिर्मम हो। लिङ्गबुद्धि तज करके, दर्शन ज्ञान चरितको सेया ।।४०६॥ पाखंडिलिंगाणि वा गृहिलिगानि वा बहुप्रकाराणि । गृहीत्वा बदंति मुढा लिंगमिदं मोक्षमार्ग इति ।।४०८॥ न तु भवति मोक्षमार्गो लिमं यददेहनिर्ममा अहंतः । लिंग मुक्त्वा दर्शनज्ञानचारित्राणि सेवते ।।४०६।। केचिद्रव्य लिगमज्ञानेन मोक्षमार्ग मन्यमानाः संतो मोहेन द्रव्यलिंगमेवोपाददते । तदा प्यनुपपन्नं सर्वेषामेव भगवतामहदेवानां शुद्धज्ञानमयत्वे सति द्रव्यलिंगाश्रयभूतशरीरममकार नामसंज्ञ-पाखंडीलिंग, व, गिहिलिंग, व, बहुप्पयार, सूढ, लिंग, इम, मोक्खमाग, इत्ति, ण, उ, लिङ्ग, देहिम्मम, अरिह, दराणणाणचरित्त । धातुसंज्ञ-गह ग्रहणे, हो सत्तायां, मुंच त्यागे, सेव सेवायां। प्रातिपदिक-पाखण्डीलिङ्ग, गृहिलिङ्ग, बहुप्रकार, मूढ, लिङ्ग, इदम्, मोक्षमार्ग, इति, लिङ्ग, देहनिर्मम, महंत, दर्शनशानचारित्र । मूलधातु-ग्रह उपादाने, वद व्यक्तायां वाचि, भू सत्तायां, मुच्ल मोक्षणे, सेव सेवायां । पदविवरण–पाखंडीलिङ्गाणि पाखण्डिलिगानि-द्वितीया बहु । गिहिलिङ्गाणि गृहिलिङ्गानिमार्गः] मोक्षका मार्ग है। [तु लिंगं मोक्षमार्गः न भवति] परन्तु लिंग मोक्षका मार्ग नहीं है [यत्] क्योकि [अहंतः] अर्हत देव भो [देहनिर्ममाः] देहसे निर्ममत्व होते हुए [लिगं मुक्त्वा] लिंगको छोड़कर [दर्शनशानचारित्रारिण सेवते] दर्शन ज्ञान चारित्रका हो सेवन करते हैं। . तात्पर्य-जहाँ देहसे भी निर्मम होकर मोक्ष जाना होता है फिर देहलिङ्गको मोक्षका मार्ग कैसे कहा जा सकता है। . टीकार्थ-कितने ही लोग अज्ञानसे द्रव्य लिगको हो मोक्षमार्ग मानते हुए मोहसे द्रव्यलिंगको ही अंगीकार करते हैं । वह भी (द्रध्यलिगको मोक्षमार्ग मानना) प्रयुक्त है, क्योंकि सभी अरहंत देवोंके शुद्ध ज्ञानमयता होनेपर, द्रव्यलिंगके आश्रयभूत शरीरके ममत्वका त्याग है, तया उस शरीरके आश्रित द्रव्यलिंगके त्यागसे दर्शनज्ञानचारित्रकी मोक्षमार्गरूपसे उपासना देखी जाती है । भावार्थ-यदि देहमय द्रव्यलिंग हो मोक्षका कारण होता तो अरहतादिक देहका ममत्व छोड़ दर्शनज्ञानचारित्रका क्यों सेवन करते, द्रश्यलिंगसे ही मोक्षको प्राप्त हो जाते । इस
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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