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समयसार त्यागात् । तदाश्रितद्रयलिंगत्यागेन दर्शनज्ञानचारित्राणां मोक्षमार्गत्वेनोपासनस्य दर्शनात् ॥ ४०८-४०६ ॥ द्वि० बहु० । बहुप्पयाराणि बहुप्रकारानि-द्वि० बहु । चित्तुं गृहीतु-हेत्व) कृदन्त अध्यय । वदति-वर्तमान अन्य० बहु० क्रिया । मूढा भूता:-प्रथमा बहु० । लिङ्ग इणं लिङ्ग इद-द्वितीया एक० । मोषखमग्गो मोक्षमार्ग:-प्रथमा एकवचन ! होदि भवति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० क्रिया। जं यत्-प्रथमा एकः । देहणिम्ममा देहनिर्ममा:-प्रथमा बहु० । अरिहा अर्हतः-प्र. बहु । लिङ्ग-द्वि० ए० । मुइत्तु मुक्त्या-असमाप्तिकी क्रिया । दसणणाणचरिताणि दर्शनज्ञानचारित्राण-वि० बहु । सेयंति संव-संभान लट् अन्य पुरुष बहुवचन क्रिया ॥ ४०८-४०६ ।। कारण यह निश्चय हुआ कि देहमयलिंग भोक्षमार्ग नहीं है । परमार्थसे दर्शनज्ञान चारित्ररूप प्रात्मा ही मोक्षका मार्ग है ।
प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथात्रिकमें बताया गया था कि अमूर्त प्रात्मद्रव्य पाहा. रक भी नहीं है उसके देह कैसा ? तथा जब देह ही नहीं है ज्ञाताके, तब उसके मोक्षका कारण देहमय वेश कैसे हो सकता है। अब इस गाथाद्वय में बताया है कि मूढ जन हो बहुत प्रकारके गृहिलिंग ब साधुवेशको मोक्षमार्ग कहते हैं, किन्तु वेश मोक्षमार्ग नहीं, क्योंकि देहसे ममत्व त्याग त्यागकर ही दर्शनज्ञानचारित्रको अभेदोपासनासे ही भव्यात्मा मोक्ष पाते हैं।
तथ्यप्रकाश-१- अज्ञानवश द्रव्यलिंगसे ही मोक्ष माननेवाले लोग द्रव्यलिंगको ही ग्रहण करते हैं । २-जो परमात्मा हुए हैं उन्होंने द्रव्यलिंगके पाश्रयभूत शरोरसे ममत्व छोड़ा था। ३- जो परमात्मा हुए हैं उन्होंने शुद्ध ज्ञानमयस्वरूपको अभेदोपासना की थी। ४-देहा. श्रित लिङ्गके त्याग (ममकारत्याग) पूर्वक दर्शनज्ञानमारित्रकी उपासना करना मोक्षमार्ग है।
सिद्धान्त-१- कार्य उपादानकारण के अनुरूप होता है । २- देहके वेषसे प्रात्माकी कैवल्यदशाको सिद्धि नहीं होती । ३- द्रव्यलिङ्गको मोक्षमार्ग कहना उपचार कपन है ।
दृष्टि-१- निश्चयनय (१६६) । २- परद्रव्यादिग्ग्राहक द्रध्यापिकनय (२९)। ३एकजाल्याधारे अन्यजात्याधेयोपचारक व्यवहार (१४२) ।
प्रयोग-शाश्वत शान्तिधाम प्राप्त करनेके लिये देहविषयक ममता त्यागकर शान. स्वरूप स्वमें उपयोग लगाना ॥ ४०८-४०६ ।।
__ आगे यह सिद्ध करते हैं कि दर्शन ज्ञान और चारित्र ही मोक्षमार्ग है:-[पासाडिगृहिमयानि लिंगानि] पाखंडी लिङ्ग याने मुनिलिंग और गृहस्पलिंग [एषः] यह [मोक्मार्गः] मोक्षमार्ग [नापि] नहीं है [जिनाः] जिनदेव [दर्शनज्ञानमारित्राणि] वर्शन शान पोर पारित्रको [मोक्षमार्ग] मोक्षमार्ग [विति] कहते हैं।