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सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार
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स्वस्वभावेनैव स्वस्वभावेन द्रव्यपरिणामोत्पादस्य दर्शनात् । एवं च सति स्वस्वभावानमात् सर्वद्रव्याणां निमित्तभूतद्रव्यांतराणि न स्वपरिणामस्योत्पादकान्येव सर्वद्रव्याण्येव निमित्तभूतद्रव्यांतरस्वभावमस्पृशति स्वस्वभावेन स्वपरिणामभावेनोत्पद्यते । श्रतो न परद्रव्यं जीवस्य रागादीनामुत्पादकमुत्पश्यामो यस्मै कुप्यामः ॥ यदिह भर्वात रागद्वेषदोषप्रसूतिः कतन - अव्यय । कौर क्रियते वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन भावकर्मप्रक्रिया । सव्वदच्वा सर्वद्रव्याणि - चाहिये । किन्तु ऐसा नहीं होता, क्योंकि अन्यके स्वभावसे अन्यद्रव्य के परिणामका उत्पाद नहीं देखा जाता । जब ऐसा है तो सभी द्रव्य निमित्तभूत परद्रव्यके स्वभाव से उत्पन्न नहीं होते, किन्तु अपने स्वभावसे ही उत्पन्न होते हैं। क्योंकि अपने स्वभाव से ही सब द्रव्यों के परिणामका उत्पाद देखा जाता है । और ऐसा होनेपर अपने स्वभावका उल्लंघन न होने सभी द्रव्योंके निमित्तभूत अन्यद्रव्य स्वके परिणामके उत्पन्न कराने वाले नहीं हैं, किन्तु सभी द्रव्य निमित्तभूत अन्यद्रव्योंके स्वभावको नहीं स्पर्शते अपने स्वभावसे अपने परिणाम भावसे उत्पन्न होते हैं, इस कारण हम परद्रव्यको जीवके रागादिकका उत्पन्न करने वाला नहीं देख रहे हैं जिसपर हम कोप कर रहे हैं ।
भावार्थ -- जिस प्रात्मा के रागादिक उत्पन्न होते हैं वे उसके अपने हो अशुद्ध परिणाम हैं । निश्चयनयसे विचारो तो रागादिरुको उत्पन्न करने वाला अन्य द्रव्य नहीं है । अन्यद्रव्य इनका निमित्तमात्र है । क्योंकि यह नियम है कि अन्यद्रव्य श्रन्यद्रव्यके गुणपर्यायको उत्पन्न नहीं करते। इसलिये जो ऐसा मानते हैं कि मेरे रागादिकको परद्रव्य ही उत्पन्न कराता है, ऐसा एकांत करते हैं वे तथ्य न जाननेसे मिथ्यादृष्टि हैं । ये रागादिक जीवके प्रदेश में उत्पन्न होते हैं, परद्रव्य तो निमित्तमात्र है, ऐसा मानना सम्यग्ज्ञान है। सो मनन करें कि हम रागद्वेष की उत्पत्ति में अन्यद्रव्यपर क्यों कोप ( गुस्सा) करें। राग-द्वेषका उपजना अपना हो अपराध है ।
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अब इस अर्थको कलशरूप काव्यमें कहते हैं- यदि इत्यादि । अर्थ- जो इस आत्मामें रागद्वेष रूप दोषकी उत्पत्ति है वहाँ परद्रव्यका कुछ भी दोष नहीं है । वहाँ तो स्वयं यह अपराधी ज्ञान ही फैलता है, यह विदित होवे और यह प्रज्ञान प्रस्तको प्राप्त होवे । मैं तो ज्ञानमात्र हूं । भावार्थ - प्रज्ञानी जीव राग-द्वेषको उत्पत्ति परद्रव्यसे मानकर परद्रव्यपरकोप करता है कि यह परद्रव्य मुझे राग-द्वेष उत्पन्न कराता है अरे, राग-द्वेषको उत्पत्ति अज्ञान से अपने में ही होती है, वे अपने ही भशुद्ध परिणाम हैं। सो यह अज्ञान नाश को प्राप्त होवे और सम्यग्ज्ञान प्रगट होवे । मैं श्रात्मा तो मात्र ज्ञानस्वरूप हूं ऐसा अनुभव