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________________ ६०२ समयसार रपि परेषां दूषणं नास्ति तत्र । स्वयमयमपराधी तत्र सर्पत्यबोधो भवतु विदितमस्तं यात्वबोधोऽस्मि बोधः ॥ २२० ॥ रागजन्मनि निमित्ततां परद्रव्यमेव कलयंति ये तु ते 1 उत्तरति न प्रथमा बहुवचन । उप्पकतेच वर्तनाम लट् अन्य पुरुष बहुवचन क्रिया । सहावेण स्वभावेनकरो । परद्रव्यको रागद्वेषका उत्पन्न करने वाला मानकर उसपर कोप मत करो । ! अब इसी अर्थ दृढ़ करनेको काव्य कहते हैं--- रामजन्मनि इत्यादि । श्रयं जो पुरुष रागकी उत्पत्ति में परद्रव्यका ही कारणपना मानते हैं, वे शुद्धनयके विषयभूत ग्रात्मस्वरूपके ज्ञानसे रहित अंधबुद्धि वाले पुरुष मोह नदीको पार नहीं कर सकते । भावार्थ- शुद्धयका विषय अनंतशक्तिको लिये चैतन्यचमत्कारमात्र नित्य एक प्रन्तस्तत्त्व है । उसमें यह योग्यता है कि जैसा निमित्त मिले वैसे श्राप परिणमता है। ऐसा नहीं कि जो जैसा परिणामावे वैसा परिणमन करे, अपना कुछ करतब नहीं हो । आत्माके स्वरूपका जिनको ज्ञान नहीं है वे ऐसा मानते हैं कि परद्रव्य ग्रात्माको जैसा परिरणमावे वैमा परिणमता है। ऐसा मानने वाले मोह रागद्वेषादि परिणामसे अलग नहीं हो पाते, उनके राग-द्वेष नहीं मिटते। क्योंकि यदि अपना करतब रागादिक होनेमें हो तो उनके भेटने में भी हो जायगा और परके ही करनेसे रागादिक हो तो वह परपदार्थं रागादिक क्रिया ही करेगा, तब मेटना कैसे हो सकता ? इस कारण रागादिक अपना किया होता है, अपना मेटा मिटता है, इस तरह कथंचित् मानना सम्यग्ज्ञान है । प्रसंग विवरण -- मनंतरपूर्व गाथाषट्कमें बताया गया था कि अचेतन विषय, कर्म, काय में दर्शन, ज्ञान, चारित्र नहीं है, फिर उनका या उनमें या उनके निमित्त क्या घात करता है । अब उसी परद्रव्यविषयक मत्यंताभावको सिद्ध कर सर्वद्रव्योंकी अपने अपने में उत्पद्यमानता - इस गावामें दर्शायी गई है । तम्यप्रकाश--- १- निश्चयतः कोई भी परद्रव्य जीवके रागादिको उत्पन्न नहीं कर सकता । २-अन्यद्रव्यके द्वारा अन्य द्रव्यका गुणोत्पाद किया ही नहीं जा सकता । ३ - सर्वद्रव्यों का उत्पाद (पर्याय) अपने स्वभावसे होता है. ४-विकारपरिणामन में अन्य द्रव्य मात्र निमित्त कारण हो सकते हैं । ५- वास्तव में अपने परिणाम पर्याय से उत्पद्यमान सभी द्रव्य निमित्तभूत परद्रव्यके स्वभावसे उत्पन्न नहीं होते, किन्तु प्रपने-अपने स्वभावसे ही उत्पन्न होते हैं । ६ - यदि कोई द्रव निमित्तभूत परद्रव्यके स्वभाव से उत्पन्न हो तो उसे निमित्तभूत परद्रव्यके प्राकार (स्वरूप) परिणमना चाहिये, किन्तु ऐसा है ही नहीं । ७- कोई भी परद्रव्य जीवके रागादिका उत्पादक नहीं है । ८- अपनी भूलसे यह जीव अज्ञानमय रागादिरूप परिणम
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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