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________________ पूर्व रंग ८५ परमार्थेनाव्यपदेश्यज्ञानस्वभावादप्रच्यवनात्प्रत्यास्थानं ज्ञानमेवेत्यनुभवनीयम् ॥३४॥ बहु०, इति-अव्यय, ज्ञात्वा-असमाप्ति की क्रिया, तस्मात्-हेत्वर्थे पंचमी एक०, प्रत्याख्यान-प्रथमा एक०, ज्ञान-प्रथमा एक०, नियमात्-पंचमी एक०, ज्ञातव्यं-प्रथमा एक० कृदन्त क्रिया ॥३४॥ ___ प्रयोग में केवल ज्ञानमात्र हूं, इसी स्वरूपमें जाननका कार्य किया करता हूं, अन्य कुछ नहीं, ऐसी ज्ञानवृत्ति बनानी चाहिये । ३४।। आगे पूछते हैं कि ज्ञाताके प्रत्याख्यानको ज्ञान ही कहा गया है इसका दृष्टान्त क्या है ? उसके उत्तररूप दृष्टान्त दान्तिको गाथा द्वारा व्यक्त कर कहते हैं- [यथा नाम] जैसे लोकमें [कोपि पुरुषः] कोई पुरुष [परद्रव्यं इति ज्ञात्वा] परवस्तुको कि यह परवस्तु है ऐसा जान करके [त्यजलि] परवस्तुको त्यागता है [तथा] उसी तरह [शानी] ज्ञानो [ सर्वान] सब [परमावाद] परद्रव्योंके भावोंको ज्ञात्वा] ये परभाव हैं, ऐसा जानकर [विमुञ्चति] उनको छोड़ता है। ___ तात्पर्य-परद्रव्यमें परत्वके जाननपूर्वक ही परपरिहार होनेके दृष्टांतसे ज्ञाताके वास्तविक प्रत्याख्यानका समर्थन किया गया है। टोकार्थ-जैसे कोई पुरुष धोबीके घर दुसरेका वस्त्र लाकर उसे भ्रमसे अपना समझ प्रोढ़कर सो गया। उसके पश्चात् दूसरेने उस वस्त्रका पल्ला पकड़ खींचकर उघाड़कर नंगा किया और कहा कि "तू शीघ्र जाग सावधान हो, मेरा वस्त्र बदले में भा गया है, सो मेरा मुझे दे" ऐसा बारम्बार वचन कहा । सो सुनता हया उस वस्त्रके सब चिह्न देख परीक्षा कर ऐसा जाना कि "वह वस्त्र तो दूसरेका ही है" ऐसा जानकर ज्ञानी हुआ उस दूसरेके कपड़ेको शीघ्र ही त्यागता है । उसी तरह ज्ञानी भी भ्रमसे परद्रध्यके भावोंको ग्रहण कर अपने जान प्रातमामें एकरूप मानकर सोता है, बेखबर हुमा प्राप ही से प्रशानी हो रहा है। सो जब श्रीगुरुके द्वारा परभावका भेदज्ञान कराके एक प्रात्मभाव रूप कराया गया "तू शीघ्र जाग, सावधान हो, यह तेरा आत्मा एक ज्ञानमात्र है, ऐसे बारम्बार प्रागमके वाक्य सुनता हुआ समस्त चिह्नोंसे अच्छी तरह परीक्षा करके निश्चित ये सब परभाव हैं । ऐसा जानकर ज्ञानी सब परभावोंको तत्काल छोड़ देता है। ___ भावार्थ--जब तक परवस्तुको भूलकर अपनी जानता है, तब तक ही ममत्व रहता है और जब यथार्थज्ञान हो जानेसे परको पराई जाने, तब दूसरेकी वस्तुसे ममत्व नहीं रहता। अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं 'अवतरति' इति । प्रर्थ- यह परभावके त्यागके दृष्टान्तको दृष्टि जिस तरह पुरानी न पड़े, उस तरह अत्यन्त वेगसे जब तक प्रवृत्तिको
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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