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समयसार अथ ज्ञातुः प्रत्याख्याने को दृष्टान्त इत्यत प्राह
जह णाम कोवि पुरिसो परदव्वमिणंति जाणिदु चयदि । तह सव्वे परभावे णाऊण विमुचदे णाणी ॥२५।।
जसे कोई पुरुष पर, वस्तको पर हि जानकर नजना !
त्यौँ सब परभावोंको, पर जानत विज्ञ है तजता ॥३५॥ यथा नाम कोपि पुरुषः परद्रव्यमिदमिति ज्ञात्वा त्यजति । तथा सर्वान पर भावान् ज्ञात्वा विमुचति ज्ञानी ।
यथा हि कश्चित्पुरुषः संभ्रांत्या रजकात्परकीयं चीवरमादायात्मीयप्रतिपल्या परिघाय शयानः स्वयमज्ञानी सन्नन्येन तदंचलमालंब्य बलान्नग्नीक्रियमाणो भक्षु प्रतिबुध्यस्वार्पय परिवतितमेतद्वस्त्रं मामकमित्यसकृद्वाक्यं शृण्वन्नखिलश्चिन्है: सुष्ठु परीक्ष्य निश्चितमेतत्परकीयमिति ज्ञात्वा ज्ञानी सन्मुंचति तच्चीवरमचिरात् तथा ज्ञातापि संभ्रांत्या परकीयान्भावानादायात्मीय
नामसंझ-जह, णाम, क, वि, पुरिस, परदन्व, इम, इति तह, सब्द, परभाव, णाणि । धातुसंज्ञजाण अवबोधने, च्चय त्यागे, विन्मुच त्यागे तृतीयगणे । प्रातिपदिक-यथा, नामन्, किम्, अपि, पुरुष, परअध्य, इदम्, इति, तथा, सर्व, परभाव, ज्ञानिन् । मूलधातु- गतौ, ज्ञा अवबोधने, त्यज हानौ वि-मुच्लू मोक्षणे । पदविवरण-यथा अव्यय, नाम-प्रथमा एक. या अव्यय, क:-प्रथमा एक०, अपि-अव्यय, प्राप्त न हो; उसके पहले हो तत्काल सक्ल अन्य भावोंसे रहित प्राप ही यह अनुभूति प्रकट हो जाती है।
भावार्थ-- यह परभावके त्यागका दृष्टान्त कहा, उसपर दृष्टि पड़े, उससे पहले सब अन्य भावोंसे रहित अपने स्वरूपका अनुभव तो तत्काल हो ही जाता है, क्योंकि यह प्रसिद्ध है कि जब वस्तुको परको जान ली, तब उसके पश्चात् ममत्व नहीं रहता।
प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें ज्ञानका प्रत्याख्यान बताया गया था, अब उसी विषयको दृष्टान्त द्वारा स्पष्ट कर रहे हैं।
तथ्यप्रकाश-(१) परकीयभावोंमें प्रात्मीय प्रतिपत्ति होना व्यामोह है । (२) प्रात्मा के सनातन असाधारण चिह्नसे भिन्न नैमित्तिक चिह्न परभाव हैं।
सिद्धान्त-१-- अन्य वस्तुमें आत्माका प्रारोपण करना उपचार है, मिथ्या है। (२) प्रात्माके असाधारण शाश्वत गुणोंसे प्रतिमाका परिचय पाना समीचीन उपाय है ।
दृष्टि-(१) संश्लिष्ट विजात्युपचरित प्रसद्भूत व्यवहार व असंश्लिष्ट विजात्युपचरित असद्भूतव्यवहार (१२३, १२५) । २- अभेद परमशुद्ध निश्चयनय, सभेद परमशुद्धनिश्चयनय (४४, ४५) ।
प्रयोग-संश्लिष्ट व प्रसंश्लिष्ट सब पर व परभावोंसे विविक्त सहजपरमात्मतत्वका
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