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समयसार
पुनरन्य इत्यात्मनि निश्चित्य प्रत्याख्यानसमये प्रत्याख्येयोपाधिमात्रप्रयत्ततकर्तृ स्वव्यपदेशत्वेपि
ने, ज्ञा अवबोधने । पदविवरण — सर्वान् द्वितीया बहुवचन पुल्लिंग कर्मविशेषण, भावान् द्वितीया बहुवचन कर्म, यस्मात् हेत्वर्थे पंचमी एक०, प्रत्याख्याति - वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० क्रिया, परान् द्वि० रहने, ग्रहणविकल्पका परिहार हो जावे, ऐसे ज्ञानको निश्चयसे प्रत्याख्यान कहते हैं ।
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टोकार्थ — जिस कारण यह ज्ञाता द्रव्य भगवान् श्रात्मा अन्य द्रव्य के स्वभावसे हुए श्रन्यमको अपने भावये उदास होनेसे पररूप जानकर त्यागता हैं, इस कारण जिसने पहले जाना है, वही पीछे त्याग करता है, दूसरा तो कोई त्यागने वाला नहीं है, ऐसे त्यागभाव श्रात्मामें ही निश्चित करके, त्यागके समय प्रत्याख्यान करने योग्य परभाव की उपाधिमात्र प्रवृत्त त्यागके कर्तृत्वका नाम होनेपर भी परमार्थसे देखा जाय तब परभाव के त्याग के कर्तृका नाम अपनेको नहीं है, स्वयं तो इस नामसे रहित ज्ञानस्वभावसे नहीं छूटा है, इसलिये प्रत्याख्यान ज्ञान ही हैं, ऐसा अनुभव करना चाहिये ।
भावार्थ --- आत्माको परभावके त्यागका कर्तृत्व है, वह नाममात्र है । आप तो ज्ञानस्वभाव है । परद्रव्यको पर जानो, फिर परभावका ग्रहण नहीं किया, यही त्याग है । ऐसा स्थिर हुमा ज्ञान ही प्रत्याख्यान है, ज्ञानके सिवाय कुछ भी दूसरा भाव नहीं है ।
प्रसंगविवरण- प्रनन्तरपूर्व प्रकरण में श्रज्ञानीको आत्मस्वरूपका प्रतिबोध किया है तब वह स्वयंको जानकर व श्रद्धान कर स्वयंके प्राचरणरूप हो रहना चाहता है सो यह अन्य द्रव्योंके त्याग बिना नहीं बनता है सो वह जानना चाहता है कि अन्य द्रव्योंका प्रत्याख्यान क्या है ? उसके ही समाधान में इस गाथाका अवतार हुआ है ।
तथ्यप्रकाश -- ( १ ) नैमित्तिक भाव ज्ञाता भगवान श्रात्माके स्वभाव में व्याप्य न हो सकनेसे परभाव हैं । ( २ ) पर व परभावको पररूप दृढ़ता से जान लेना ही प्रत्याख्यान है, क्योंकि आत्मा परपदार्थको न ग्रहण करता है, न त्यागता है । ( ३ ) जिस परपदार्थ के विषय में यह जीव लगावको कल्पना करता है उसका तो ग्रहण करनेमें नाम लिया जाता है और जब उस पदार्थके विषय में लगावको कल्पना नहीं रहती तब उसका त्याग करनेमें नाम लिया जाता है ।
सिद्धान्त - ( १ ) यह जीव परद्रव्यको न ग्रहण करता है, न त्यागता है । (२) आत्मस्वभाव में व्याप्य नहीं होनेसे विकार परभाव हैं, पोद्गलिक हैं ।
दृष्टि - १ - परद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिकनय (२६) । २ - विवक्षितैकदेश शुद्धनिश्चयनय ( ४८ ) ।
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