________________
४१२
समयसार
अथ मोक्षाधिकार
अथ प्रविशति मोक्षः । द्विधाकृत्य प्रज्ञाक्रकचदलनाबंधपुरुषो नयन्मोक्षं साक्षात्पुरुषमु. पलभैकनियतं । इदानीमुन्मज्जत् सहजपरमानंदसरमं परं पूर्ण झानं कृतसकलकृत्यं विजयते ।। ।।
जह णाम कोवि पुरिसो बंधणयमि चिरकालपडिवतो। तिव्वं मंदसहावं कालं च वियाणए तस्म ॥२८॥ जइ वि कुणइ च्छेदं ण मुच्चए तेण बंधणवसो सं। बगले, उबएणविण सो एरो पावइ विमोक्खं ॥२८॥ इय कम्मबंधणाणं पएसठिड्पयडिमेवमणुभागं । जाणंतोवि ण मुच्चड़ मुच्चइ सो चेव जइ सुद्धो ॥२६॥
जैसे कोई पुरुष जो, बन्धनमें चिरकालसे बँधा हो। तीन मंद भावोंको, अरु बन्धनकालको जाने ॥२८॥ यदि वह नर नहिं काटे, बन्धनको बन्धके वश हुआ तो। बहुत कालमें भी उस, बन्धनसे मुक्ति नहिं पाता ॥२८॥ त्यों कर्मबन्धनोंके, थिति अनुभागप्रदेश प्रकृतियोंको ।
जानता भि नहि छुटे, छूटे यदि शुद्ध हो जावे ॥२६॥ नामसंशः जह, णाम, को, वि, पुरिस, बंधणय, चिरकालपडिबद्ध, तिच, मंदसहाव, काल, च, तत्, जप, ण, बि, छेद, ण, बंधणवस, संत, काल, उ, वहुय, वि, ण, त, णर. विमोक्ख । धातुसंश-वि जाण
अब क्रमप्राप्त मोक्षाधिकारका धारम्भ होता है जिसमें सर्वप्रथम मोक्षाधिकारके प्रादिमें । सम्यग्ज्ञानकी महिमा बतलाते हैं--द्विधाकृत्य इत्यादि । अर्थ--प्रब प्रज्ञारूप करोंतसे विदारण के द्वारा बन्ध और पुरुषको पृथच् करके निजस्वरूपके अनुभवसे सुनिश्चित पुरुषको साक्षात मोक्ष प्राप्त कराता हुमा जयवंत प्रवर्त रहा है। वह ज्ञान अपने स्वाभाविक परम प्रानन्दसे सरस (रस भरा) है, उत्कृष्ट है और जिसने करने योग्य समस्त कार्य कर लिये हैं याने अब