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________________ २१० समयसार त्यौ योगोपयोगावेच तत्र निमित्तत्वेन कर्तारौ योगोपयोगयोस्त्वात्मविकल्पव्यापारयोः कदाचिद. ज्ञानेन करणादारमापि कर्तास्तु तथापि न परद्रव्यात्मकर्मकर्ता स्यात् ।।१०।। घट-द्वितीया एकवचन । न-अव्यय । एय-अव्यय । शेषकानि-द्वितीया बहु० । द्रव्याणि-द्वि० बहु । योगोपयोगौ-प्रथमा द्विवचन । उत्पादको-प्रथमा द्विवचन । च-अव्यय। तेषां-पष्ठी बहु० । भवति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । कर्ता-प्रथमा एकवचन ।।१०।। कर्ता होता तो प्रारमा घटादिमय व क्रोधादिमय हो जाता यह प्रसंगदोष पाता । २-प्रात्मा यदि घटादिक व क्रोधादिक परद्रव्यपरिणामका निमित्तरूपसे पता होता तो सदैव उनका कर्ता रहनेका प्रसंगदोष माता । ३-मात्माके योग उपयोग हो घटादि व क्रोधादि परद्रव्यात्मकपरिणामके निमित्तपनेसे कर्ता हैं याने योगोपयोगका निमित्त पाकर पुद्गलस्कंध स्वयं घटादि व कर्मादिरूप परिणाम जाते हैं। ४-प्रात्मा प्रज्ञानसे वैसे विकल्प व व्यापार रूप परिणमता है, अतः प्रात्मा योग (व्यापार) व उपयोग (विकल्प) का कदाचित् कर्ता है । ५-प्रात्मद्रव्य परद्रव्यात्मक परिणामका कर्ता न उपादानरूपसे है और न निमित्तरूपसे है । सिद्धान्त-१-मात्मा किसी भी परद्रव्यभावका कर्ता नहीं । २-प्रात्माके विकल्प व व्यापारका निमित्त पाकर घटादिक व कर्मादिक परद्रव्यपरिणाम होता है ।। दृष्टि--१- प्रतिषेधक शुद्धनय (४६) । २- उपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिकनय । प्रयोग-ज्ञानमात्र एक झायकस्वभाव में मात्मद्रव्य किसी भी परद्रव्यपरिणामका न तो उपादानरूपसे कर्ता हूं और न निमित्तरूपसे कर्ता हूं, मैं तो अकर्तृस्वभाव ध्र व सहजज्ञान स्वभावमें रमकर कृतार्थ होऊंगा ऐसा ज्ञानप्रयोग करना चाहिये ।।१०॥ अब कहते हैं कि ज्ञानी ज्ञानका ही कर्ता है:--[पुद्गलद्रव्यारण] पुद्गल द्रव्योंके [परिणामाः] परिणाम ये जो [ज्ञानावरणानि] ज्ञानाबरणादिक [मवंति] हैं [तानि] उनको [प्रात्मा] प्रात्मा [न करोति] नहीं करता, ऐसा [यः] जो [जानाति] जानता है [सः] वह [जानी] जानी [भवति है। तात्पर्य-ज्ञानीको दृढ़ श्रद्धा है कि मात्मा जानन सिवाय अन्य कुछ किसीका नहीं करता, सो वह कमैको भी जान रहा है, करता नहीं । टीकार्थ-वास्तवमें जो पुद्गलद्रव्यके परिणाम गोरसमें व्याप्त दही दूध मोठा खट्टा परिणाम की भांति पुद्गलद्रव्यसे व्याप्त होनेसे ज्ञानावरणादिक हैं उनको निकट बैठा गोरसा. क्षकी तरह शानी कुछ भी नहीं करता है। किन्तु जैसे वह गोरसाध्यक्ष गोरसके दर्शनको ने परिणामसे व्यापकर मात्र देखता ही है, उसी प्रकार ज्ञानी पुद्गलपरिणामनिमित्तक को ज्ञानको जो कि अपने व्याप्यरूपसे हुमा उसको व्यापकर जानता ही है। इस प्रकार
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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