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________________ समयसार न च परभावः केनापि कत पार्यत जो जह्मि गुणे दवे सो अण्णमि दु ण संकमदि दब्बे । सो अण्णमसंकेतो कह तं परिणामए दव्वं ॥१०३॥ जो जिस व्रव्य व गुणमें. वह नहि परवष्यमें पलट सकता। परमें मिलता न हुआ, कैसे पर परिणमा सकता ॥१०३॥ यो यस्मिन् गुणे द्रव्ये सोन्यस्मिस्तु न संक्रामति द्रव्ये । सोन्यदसंक्रांतः कथं तत्परिणामयति द्रव्यं ।।१०।। ___ इह किल यो यावान् कश्चिद्वस्तुविशेषो यस्मिन् यावति कस्मिश्चिच्चिदात्मन्यचिदात्मनि वा द्रव्ये गुणे च स्वरसत एवानादित एव वृत्तः स खल्वचलितस्य वस्तुस्थितिसी. म्नो भेत्तुमशक्यत्वात्तस्मिन्नेव वर्तते न पुनः द्रव्यांतरं गुणान्तरं वा संक्रामेत । द्रव्यांतरं गुणा नामसंज्ञ-ज, ज, गुण, दव, त, अण्ण, दु, ण, दव्व, त, अण्ण, असंकत, कह, त, दव्ध । पातुसंज्ञ--- सम्-क्कम पादविक्षेपे, परि-नम नम्रीभावे प्रेरणार्थे । प्रकृतिशय-यत्, यत्, गुण, द्रव्य, तत्, अन्य, तु, न, द्रव्य, तत्, अन्यदसंकान्त, कथं, तत्, द्रव्य । मूलधातु-क्रम पादविक्षेपे भ्वादि । पदविवरण-य:-प्रथमा प्रयोग --- निमित्तनैमित्तिक भावके प्रसंग में भी वस्तुस्वातंत्र्य जानकर अन्त स्वभावदृष्टि करके निरुपाधिस्वातंत्र्यका प्रादर करके विशुद्ध चिरप्रकाशमात्र अपनेको अनुभवना ॥१२॥ अब कहते हैं कि परभाव किसीके द्वारा भी नहीं किया जा सकता--[मः] जो द्रव्य [यस्मिन् ] जिस अपने [द्रव्ये] द्रव्यस्वभावमें [गुणे] तथा अपने जिस गुणमें वर्तता है [सः] वह [अन्यस्मिन् तु] अन्य [द्रव्ये] द्रध्यमें तथा गुणमें न संकामति] संक्रमण नहीं करता याने पलटकर अन्यमें नहीं मिल जाता [सः] वह [अन्यसंक्रान्तः] अन्यमें नहीं मिलता हुअा वस्तुविशेष [तत् द्रव्यं] उस अन्य द्रव्यको [कथं] कैसे [परिणामयति] परिणमा सकता है, अर्थात् कभी नहीं परिणामा सकता। ___तात्पर्य-जब एक द्रव्य दूसरे द्रव्यरूप, गुणरूप हो ही नहीं सकता तब मन्य द्रव्यको परिणमानेकी चर्चा ही नहीं उठ सकती। टोकार्थ- इस लोकमें जो कोई वस्तुविशेष अपने चेतनस्वरूप तथा प्रचेतनस्वरूप द्रव्य में तथा अपने गुरगमें, अपने निजरसमें ही मनादिसे वर्तता है, वह वास्तवमें अपनी प्रचलित वस्तुस्थितिकी मर्यादाको भेदनेके लिये असमर्थ होनेके कारण अपने ही द्रव्य गुणमें रहते हैं । द्रध्यांतर तथा गुणांतररूप संक्रमण नहीं करता हुआ वह अन्य वस्तुविशेषको कैसे परिममन करा सकता अर्थात् कभी नहीं परिणमन करा सकता। इसी कारण परभाव किसीके भी द्वारा नहीं किया जा सकता । भावार्थ-जो द्रव्यस्वभाव है, उसे कोई भी नहीं पलट सकता,
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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