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कर्तृकर्माधिकार
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न्तरं वाऽसंक्रामंश्च कथं त्वन्यं वस्तुविशेषं परिणामयेत् । अतः परभावः केनापि न कसु पार्येत ॥१०३॥
एकवचन | यस्मिन् सप्तमी एक० । द्रव्ये सप्तमी एक० स:- प्रथमा एक० | अन्यस्मिन् सप्तमी एक० । तु - अव्यय । न-अव्यय । संक्रामति- वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । द्रव्ये - सप्तमी एक० । सः - प्रथमा एक० । अन्यदसंक्रान्तः प्रथमा एक० । कथं अव्यय । तत् प्र० ए० द्रव्यम् प्रथमा एकवचन 11१०३|| यह वस्तुकी मर्यादा है ।
प्रसंगविवरण - प्रनन्तरपूर्व गाथा में बताया गया था कि अज्ञानी भी परभावका कर्ता नहीं होता । सो अब इसी विषयको इस गाथा में युक्तिपूर्वक पुष्ट किया गया है ।
तथ्यप्रकाश - ( १ ) प्रत्येक पदार्थ अपने-अपने द्रव्य व गुणमें ही बर्तते हैं । (२) प्रत्येक पदार्थ की स्वरूपसीमा भेदी नहीं जा सकती । ( ३ ) कोई भी पदार्थ किसी अन्य द्रव्यरूप व अन्य गुणरूप नहीं हो सकता । ( ४ ) जब कोई पदार्थ किसी अन्य द्रव्यरूप व अन्य गुणरूप हो ही नहीं सकता तो कोई भी पदार्थ किसी अन्यको परिणमा हो क्या सकेगा ?
सिद्धान्त - ( १ ) कोई भी पदार्थ समस्त अन्य पदार्थके द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूप नहीं हो सकता । ( २ ) कोई भी पदार्थ अपने स्वरूपमय ही सदा रहेगा । परद्रव्यादिग्राहक द्रव्याधिकनय ( २ ) । २- स्वद्रव्यादिग्राहक द्रव्या
दृष्टि- १थिकनय ( २८ ) ।
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प्रयोग - मैं किसी अन्यके द्रव्यगुणरूप नहीं हो सकता, अन्य कोई भी मेरे द्रव्यगुणरूप नहीं हो सकता, फिर मेरा किसी अन्यसे सम्बन्ध ही क्या है ? ऐसे परसे अत्यन्त विविक्त निज प्रात्मतत्वको निरखते रहना चाहिये ।। १०३ ।।
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प्रश्न – किस कारण आत्मा निश्चयतः पुद्गलकर्मीका कर्ता है ? उत्तर- [ आत्मा ] धामा [गलमये कर्मणि] पुद्गलमय कर्ममें [ द्रव्यगुणस्य च ] द्रव्यका तथा गुणका कुछ भी [ न करोति ] नहीं करता [तस्मिन् ] उसमें याने पुद्गलमय कर्ममें [ तदुभयं ] उन दोनों को [ अकुर्वन्] नहीं करता हुआ [तस्य ] उसका [ स कर्ता] यह कर्ता [ कथं ] कैसे हो सकता है ?
तात्पर्य - आत्मा पौड्गलिककर्ममें न द्रव्यका कुछ करता न गुरणका कुछ करता, अतः श्रात्माको पौद्गलिककर्मका कर्ता कहनेकी कुछ भी गुंजाइश नहीं ।
टीकार्थ - जैसे मृत्तिकामय कलशनामक कर्म जहाँ कि मृत्तिकाद्रव्य और मृत्तिकागुण अपने निजरसके द्वारा हो वर्तमान है, उसमें कुम्हार अपने द्रव्यस्वरूपको तथा अपने गुरणको नहीं मिला पाता, क्योंकि किसी द्रव्यका अन्य व्यरूप परिवर्तनका निषेध वस्तुस्थिति से ही