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________________ २१६ समयसार अतः स्थितः खल्वात्मा पुद्गलफर्मणामकर्ता---- दव्वगुणस्स य ादा ण कुगदि पुग्गलमयह्मि कम्ममि । तं उभयमकुब्वंतो तसि कहं तस्स सो कत्ता ॥ १०४ ॥ पुद्गलायर कलोंमें, भारला ह य मुख कभी करता। उनको करता न हुआ. कर्ता हो कर्मका कैसे ? द्रव्यगुणस्य वात्मा न करोति पुगलमये कर्मणि । तदुभयमकुर्वस्तस्मिन्कथं तस्य स कर्ता ।। १०४॥ ___यथा खलु मृण्मये कलशे कर्मणि मृदध्यमृद्गुणमोः स्वरसत एवं वर्तमाने द्रव्यगुगांतरसंक्रमस्य वस्तुस्थित्यैव निषिद्धत्वादात्मानमात्मगुणं वा नाधत्ते स कलशकारः द्रव्यांतरसंक्रममंतरेणान्यस्य बस्तुनः परिणामयितुमशक्यत्वात् तदुभयं तु तस्मिन्ननादधानो न तत्त्वस्तस्य कर्ता प्रतिभाति । तथा पुद्गलमये ज्ञानावरणादौ कमरिण पुद्गलद्रव्यपुद्गलगुणयोः स्वरसत एव __मामसंज्ञ-दव्वगुण, य, अत्त, ण, पुग्गलमय, कम्म, त, उभय, अकुव्वंत, त, कह, त, त, कतार । धातुसंज्ञ-पुर पालनपुरणयोः, गल स्रवणे. कुण करणे, कुख करणे। प्रातिपदिक-द्रव्यगुण, च, आत्मन, न, पुद्गलमय, कर्मन, तत्, उभय, अकुर्वत्, तत्, कथं, तत्, कार्नु । मूलधातु-पूरी आप्यायने, गल स्रवणे, है । अन्य द्रव्यरूप हुए बिना अन्य वस्तुका परिणमन कराये जानेकी असमर्थतासे उन द्रव्योंको तथा गुणोंको अन्यमें नहीं धारता हुआ परमार्थसे उस मृत्तिकामय कलशनामक कर्मका निश्चय से कुम्भकार कर्ता नहीं प्रतिभासित होता । उसो प्रकार पुद्गलमय ज्ञानावरणादि कर्म जो कि पुद्गलद्रव्य और पुद्गलके गुणोंमें अपने रससे ही वर्तमान हैं, उनमें आत्मा अपने द्रव्यस्वभाव को और अपने गुणको निश्चयसे नहीं धारण कर सकता । क्योंकि अन्य द्रव्यका अन्य द्रव्यमें तथा अन्य व्यका अन्य द्रव्यके गुणों में संक्रमण होनेको असमर्थता है । इस प्रकार अन्य द्रव्यका अन्य द्रव्यमें संक्रमणके बिना अन्य वस्तुको परिणमानेकी असमर्थता होनेसे उन द्रव्य और गुण दोनोंको उस अन्य में नहीं रखता हुअा अात्मा उस अन्य पुद्गलद्रव्य का कैसे कर्ता हो सकता है, कभी नहीं हो सकता। इस कारण यह निश्चय हुमा कि प्रात्मा पुद्गलकर्मोका अकर्ता है । प्रसंगवियरस-अनन्तरपूर्व माथामें बताया गया था कि कोई भी द्रव्य किसी भी पर के परिणमनको नहीं कर सकता । सो अब इस कथनसे अपना प्रायोजनिक निश्चय बताया है इस माथामें कि इस कारण यह ठोक रहा कि आत्मा पुद्गलकोका अकर्ता है । तथ्यप्रकाश-(१) निमित्तभूत वस्तु उपादानमें अपना द्रव्य, गुण, क्रिया, प्रभाव कुछ भी नहीं डालता । (२) प्रभावका अर्थ है-भाव याने होना, प्र याने प्रकृष्टरूपसे होना सो यह भाव प्रभाव पादानका परिणमन है । (३) निमित्तभूत वस्तुके सानिध्यमें उपादान अपनेमें प्रभाव उत्पन्न कर लेता। (४) चूंकि यह प्रभाव निमित्तभूत वस्तुके सानिध्य बिना
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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