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________________ मोक्षाधिकार प्रतिक्रमणं प्रतिसरणं परिहारो धारणा निवृतिश्च । निदा गर्दा शुद्धिः अष्टविधो भवति विषकुंभः ।।३०६।। अप्रतिक्रमणमप्रतिसरणमपरिहारोऽधारणा चव । अनिवृत्तिश्चानिदाऽगडिशुद्धिरमृतकुम्भः ॥३०॥ ___ यस्तावदज्ञानिजनसाधारणोऽप्रतिक्रमणादिः स शुद्धात्मसिद्ध्यभावस्वभावत्येन स्वयमेवापराषत्वाद् विषकुम्भ एव किं तस्य विचारेण । यस्तु द्रव्यरूपः प्रतिक्रमणादिः स सर्वापराध. विषदोषापकर्षणसमर्थत्वेनामृतकुम्भोऽपि प्रतिक्रमणाऽप्रतिक्रमणादिविलक्षणाप्रतिक्रमणादिरूपां तार्तीयकी भूमिमपश्यतः स्वकार्यकरणासमर्थत्वेन विपक्षकार्यकारित्वाद्विषकुम्भ एवं स्यात् । अप्रतिक्रमणादिरूपा तृतीय भूमिस्तु स्वयं शुद्धात्मसिद्धिरूपत्वेन सर्वापरावविषदोषारणां सर्वकष. असोहि, अमयकभ। धातुसंज्ञ- पडि-क्कम पादविक्षेपे, पटि-सर गतौ, पडि-हर हरणे, नि इगती, निद निंदायां, गरह निन्दायां, सज्झ नर्मल्ये । प्रातिपदिक--प्रतिक्रमण, प्रतिसरण, परिहार, धारणा, निवृत्ति, च, निन्दा, गो, सुद्धि, अष्टविध, विषकुम्भ, अप्रतिक्रमण, अप्रतिसरण अपरिहार, अधारणा, अनिवृत्ति, अनिन्दा, अगही, अशुद्धि, अमृतकुम्भ । मूलधातु-प्रति कम पाद विक्षेपे भ्वादि, प्रति स गतौ भ्वादि, होअनिदा अगाँ] अनिवृत्ति, अनिदा, अगहाँ [च एवं] और [अशुद्धिः] अशुद्धि यह आठ प्रकार का [अमृतकुम्भः] अमृतकुंभ है । तात्पर्य-विकल्परत रहना विषकुम्भ है, स्वभाव रहना अनुम्न है। टीकार्थ---वास्तव में अज्ञानी जनोंमें साधारणतया पाया जाने वाला जो अप्रतिक्रमणादि है वह शुद्ध आत्माकी सिद्धिके अभावरूप स्वभाव वाला होनेके कारण स्वयमेव अपराधरूप होनेसे विषकुम्भ ही है; उसका विचार करनेका प्रयोजन ही क्या है ? क्योंकि वे तो प्रथम हो त्यागने योग्य हैं किन्तु जो द्रव्यरूप प्रतिक्रमण प्रादि है वह समस्त अपराधविषदोषको हटाने में समर्थ होनेसे अमृतकुम होनेपर भी प्रतिक्रमण-अप्रतिक्रमणादिसे विलक्षण प्रतिक्रमणादि रूप तीसरी भूमिकाको न देखने वाले पुरुषको वह द्रव्य-प्रतिक्रमणादि अपराध काटने रूप अपना कार्य करनेको असमर्थ होनेसे विपक्ष अर्थात् बंध का कार्य करने वाला होनेसे विषकुम्भ ही है। परंतु अप्रतिक्रमणादिरूप तीसरी भूमि स्वयं शुद्धात्माकी सिद्धिरूप होनेके कारण समस्त अपराधरूपी विषके दोषोंको सर्वथा नष्ट करने वालो होनेसे साक्षात् स्वयं अमृतकुम्भ है । और, इस प्रकार वह तीसरी भूमि व्यवहारसे द्रव्यप्रतिक्रमणादिके भी अमृतकुम्भपना साधती है। और उस तीसरी भूमिसे हो पात्मा निरपराध होता है। उस तीसरो भूमिके अभावमें द्रव्यप्रतिक्रमणादि अपराध ही है। इस कारण तीसरी भूमिसे ही निरपराधत्व है यह सिद्ध होता है । उसको प्राप्तिके लिये ही यह द्रव्यप्रतिक्रमणादि है । ऐसा होनेसे यह नहीं मानना कि निश्चयनयका शास्त्र द्रव्यप्रतिक्रमणादिको छुड़ाता है। किन्तु मात्र द्रव्यप्रतिक्रमणादि द्वारा छुड़ा नहीं देता, इसके अतिरिक्त अन्य भी, प्रतिक्रमण-अप्रतिक्रमणादिसे प्रगोचर प्रप्रतिक्रम
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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