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________________ : 3: ५६७ सर्व विशुद्धज्ञानाधिकार द्रव्ये न भवतीत्यायात अन्यथा तद्धाते पुद्गलद्रव्यधातस्य पुद्गलद्रव्यघाते तद्घातस्य दुनि चारत्वात् । यत एवं ततो ये यावन्तः केचनापि जीवगुणास्ते सर्वेऽपि परदव्येषु न संतोति सम्यक् पश्यामः । अन्यथा अत्रापि जीवगुणघाते पुद्गलद्रव्यघातस्य पुद्गलद्रव्यधाते जीवगुणघालस्य च दुर्निवारत्वात् । यद्येवं तहि कुलः सम्यग्दृष्टेर्भवति रागो विषयेषु ? न कुतोऽपि । तहि रागस्य कतरा खनिः ? रागद्वेषमोहा हि जीवस्यैवाज्ञानमयाः परिणामास्ततः परद्रव्यत्वा तु अव्यय | अयणे अचेतने विसयेविषये सप्तमी एक । तम्हा तस्मात् पचमी एक० । किं-अव्यय या द्वि० ६० एक० । घादयदे हन्ति वर्तमान अन्य० एक० क्रिया । चेदयिदा चेतयिता - प्रथमा एक० 1 तेमु तेषु वियेसु विषयेषु सप्तमी बहु । कम्मे कर्मणि सप्तमी एकवचन तेसु कम्मेसु तेषु कर्मसु सप्तमी बहु० । काये - सप्तमी एक० । कायेसु कार्येषु सप्तमी बहु० । णाणस्स ज्ञानस्य दंसणस्स दर्शनस्य--पष्ठी परद्रव्यवना होनेसे विषयों में रागादिक ग्रज्ञानमय परिणाम नहीं है और प्रज्ञानका प्रभाव होनेसे सम्यग्दृष्टि में भी रागादिक नहीं है । इस प्रकार रागादिक विषयोंमें न होते हुए व सम्यदृष्टि भी न होते हुए वे हैं ही नहीं । भावार्थ - दर्शन, ज्ञान, चारित्र प्रादि जितने भी जीवके गुरण हैं वे कोई भी प्रचेतन पुद्गलद्रव्यमें नहीं हैं । आत्या मान परिसराग-द्वेष-सोह विकार अज्ञानवश जीवमें होते है, उनसे अपने ही दर्शन, ज्ञान, चारित्र श्रादि गुरण घाते जाते हैं । अज्ञानका प्रभाव हो जानेपर आत्मा सम्यग्दृष्टि हो जाता है तब वे राग-द्वेष- मोह नहीं उत्पन्न होते । श्रब देखिये शुद्धपकी दृष्टि में पुद्गलमें भी रागद्वेष मोह नहीं है और सम्यग्दृष्टि जीवमें भी नहीं है । इस तरह वे रागादिक दोनों में ही नहीं हैं। तथा पर्यायदृष्टि से देखिये तो रागादिक भाव जीवके श्रज्ञान अवस्था में हैं, ऐसा निर्णय समझना । अब इस अर्थको कलशरूप काव्यमें कहते हैं- रागद्वेष इत्यादि । अर्थ - इस ग्रात्मा में ज्ञान ही अज्ञानभावसे रागद्वेषरूप परिणमित होता है । वस्तुत्वपर लगाई हुई दृष्टिसे देखे गये वे रागद्वेष कुछ भी नहीं हैं याने द्रव्यरूप भिन्न पदार्थ नहीं हैं । इस कारण सम्यग्दृष्टि पुरुष तत्वदृष्टिसे उन राग द्वेषोंको प्रकटतया नाश करे जिससे कि पूर्ण प्रकाशरूप अचल दीक्षि वाली स्वाभाविक ज्ञानज्योति प्रकाशित हो । भावार्थ -- रागद्वेष कुछ भिन्न द्रव्य नहीं हैं, ये तो जीवके प्रज्ञानभावसे होते हैं । इसलिये सम्यग्दृष्टि होकर तत्त्वदृष्टिसे देखो तो राग द्वेष कुछ भी वस्तु नहीं । इस तरह देखनेसे घातक कर्मका नाश होता है व केवलज्ञान उत्पन्न होता है । प्रसंगविवरण - प्रनन्तरपूर्वं गाथादशक में प्रात्माका कर्तृकर्मत्व ग्रात्मामें ही बताया
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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