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समयसार
दर्शनशानचरित्रं किचिदपि नारित त्वचेतने विषये। तस्माकि हंति चतयिता तेषु विषयेषु ।। ३६६ ।।। दर्शनज्ञानचरित्रं किंचिदपि नास्ति त्वचेतने कर्मणि । तस्मारिक हंति चेायता तेषु कर्मसु ।। ३६७ ।। दर्शनज्ञानचरित्रं किंचिदपि नास्ति त्वचेतने काये। तस्मात् कि हंति चेतयिता तेषु कायेषु ॥ ३६८ ।। झानस्य दर्शनस्य भणितो घातस्तथा चरित्रस्य । नापि तत्र पुद्गलद्रव्यस्य कोऽपि घातस्तु निदिष्टः ।। ३६६ ।। जीवस्य ये गुणाः केचिन्न संति खलु ते परेषु द्रव्येषु । तस्मात्सम्यग्दृष्टेर्नास्ति सगस्तु विषयेषु ।। ३७० ।। रागो द्वेषो मोहो जीवस्यैव चानन्यपरिणामाः । एतेन कारोन तु शब्दादिषु न संति राशादयः ।। ३७१ ।।
यद्धि यत्र भवति तत्तद्धाते हन्यत एव यथा प्रदीपघाते. प्रकाशो हन्यते । यत्र च यद्भवति तत्तदाते हन्यते यथा प्रकाशपाते प्रदीपो हन्यते । यत्तु यत्र न भवति तत्तदाते न हन्यते यथा घटधाते घटप्रदीपो न हन्यते । यत्र यन्न भवति तत्तद्धाते न हन्यते यथा घटप्रदीपधाते घटो न हन्यते । तथात्मनो धर्मा दर्शन ज्ञानचारित्राणि पुद्गलद्रव्यधातेऽपि न हन्यते, न च दर्शनज्ञानचरित्राणां पातेऽपि पुद्गलद्रव्यं हन्यते, एवं दर्शनज्ञानचारित्राणि पुद्गलभणित, घात, तथा, चरित्र, तत्र, पुद्गलद्रव्य, निदिष्ट, जीव, यत्, गुण, केचित्, न, खलु, तत्, पर, द्रव्य, तत्, सम्यग्दृष्टि, राग, विषय, राग, द्वेष, मोह, जीव, अनन्यपरिणाम, एतत्, कारण, तु, शब्दादि, न, रागादि । मूलधातु- अभति, हुन हिसायां । परमिशन--सामारित्तं दर्शनशानचरित्र-प्रथमा एक० । किचिवि किंचित-अव्यय । ण न-अव्यय । अस्थि अस्ति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० क्रिया। दु जो होता है, उसके याने प्राधेयके घात होनेसे उस आधारका भी घात होता है, जैसे प्रकाशका घात होनेपर दीपक भी हना जाता है । जो जिसमें नहीं है वह उसके घात होनेपर नहीं हना जा। जैस घटका घात होनेपर घटप्रदीप नहीं नष्ट हो जाता । तथा जिसमें जो नहीं है वह उसके घात होनेपर नहीं हना जा सकता । जैसे घड़े में दीपकका घात होनेपर घड़ा नहीं नष्ट हो जाता । उसी प्रकार पुद्गलद्रव्यके घात होनेपर भी यात्माके धर्म दर्शन, ज्ञान और चारित्र नहीं घाते जाते, तथा दर्शन, ज्ञान और चारित्रका घात होनेपर पुद्गलद्रव्य भी नहीं पाता जाता । इस तरह दर्शन ज्ञान और चारित्र पुद्गलद्रव्यमें नहीं है यह निर्णीत होता है । यदि ऐसा न हो तो दर्शन जान चारित्रका घात होनेपर पुद्गलद्रव्यका बात अवश्य हो जावेगा और पुद्गलद्रव्यका घात होनेपर दर्शन, ज्ञान और मारित्रका घात अवश्य हो जावेगा । चूंकि ऐसा है अतः जो जितने कोई भी जीवद्रव्यक गुण हैं. वे सभी परद्रव्यों में नहीं है। यह हम अच्छी तरह देख रहे हैं । यदि ऐसा न हो तो यहाँपर भी जीवके गुणका घात होनेपर पुद्. गलद्रव्यका घात और पुद्गल द्रव्यका पति होनेपर जीवगुणका घात हो बठेगा, किन्तु ऐसा नहीं होता। प्रश्न-यदि ऐसा है तो सम्यम्हष्टिके विषयों में राग किस कारणसे होता है ? उत्तर - किसी भी कारणसे नहीं होता । प्रश्न--तब रागके उपजनेकी कौनसी खान है ? उत्तररागद्वेष मोह, जीबके ही प्रशानमय परिणाम रागादिकके उपजनेकी खान है । इस कारण