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सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार चारित्र ज्ञान दर्शन, कुछ भी नहि है विषय प्रचेतन में। तब फिर क्या घात करे, उन विषयों में मुधा प्रात्मा ॥३६६॥ चारित्र ज्ञान बर्शन, कुछ भी नहि है करम प्रवेतनमें । तब फिर क्या घात करे, उन कोंमें मुषा प्रात्मा ॥३६७॥ चारित्र ज्ञान दर्शन, कुछ मो नहि है अजीब कायोंमें । तम फिर क्या बात करे, उन कायों में मुषा प्रात्मा ॥३६॥ चारित्र ज्ञान दर्शन, का जो है घात होना बताया। पुस्मामला यहां, नहै कोई बात बतलाया ॥३६६॥ जीवके कोई जो गुण, हैं नहिं वे अन्य किन्हीं द्रव्योंमें । इससे सम्मादृष्टी-के नहि है राग विषयोंमें ॥३७०॥ राग द्वेष मिथ्याशय, जीव हि को हैं अनन्य परिणतियां।
इस कारण रागादिक, शब्दाविक में नहीं कुछ भी ॥३७१।। वि, ज, णिदिद, जीव, ज, गुण, केइ, त, पर, दब्बत, सम्माइठि, राग, विसय, राग, दोस, मोह, जीव, अणष्णपरिणाम, एत, कारण, सद्दादि, रागादि । धातुसंश-अस सत्तायां, घात हिंसायां। प्रातिपदिकदर्शनशानचारित्र, किंचित्, अपि, न, तु, अचेतन, विषय, तत्, कि, चेतयित, कर्मन्, काय, ज्ञान, दर्शन, इसलिये चियिता] आत्मा [तेदु कामेषु] उन कायोंमें [कि हंसि] क्या घात करता है ? [मानस्य दर्शनस्य तमा चरित्रस्य ज्ञानका, दर्शनका तथा चारित्रका [घातः] घात [मरिणतः] कहा गया है [तत्र वहां [पुद्गलद्रव्यस्य तु] पुदगलद्रव्यका तो [कोपि पातः] कुछ भी पात [नापि निर्दिष्टः] नहीं कहा गया। [ये केचित्] को कुछ [जोवस्य गुगाः] जोदके गुण हैं
स] वे [खलु] निश्चयसे [परेषु द्रव्येष] परद्रव्यों में इन संति] नहीं हैं [तस्माद] इस कारण [सम्बग्दष्टेः] सम्यग्दृष्टिके [विषयेषु] विषयोंसे [रागस्तु] राग हो [नास्ति नहीं है। [रागः देवः मोहः] राग-द्वेष-मोह ये सब [जीवस्यैव ] जीवके हो [अनन्यपरिणामा] भभिन्न परिणाम हैं [एतेन कारणेन सु] इसी कारण [रागाइयः] रागादिक [शब्याविषु] शब्दादिकोंमें [म संति नहीं हैं।
तात्पर्य-जीव परविषयक विकल्प करके अपना ही घात करता है परका कुछ नहीं कर सकता।
टोकार्य-निश्वयसे जो जिसमें होता है वह उसके पास होनेपर पाता हो जाता है । जैसे दीपकमें प्रकाश है सो दीपकका पात होनेपर प्रकाश भी नष्ट हो जाता है । और जिसमें