SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 649
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समयसार १६८ द्विषयेषु न संति, प्रज्ञानाभावारसम्यग्दृशौ तु न भवति । एवं ते विषयेष्वसंतः सम्यम्हण्टेनं भवंतो न भवत्येव ।। रागद्वेषाविह हि भवति ज्ञानमज्ञानभावात् तो वस्तुत्वप्रणिहितशा दृश्य। भानो न किंचित् । सम्यग्दृष्टिः क्षपयतु ततस्तत्त्वदृष्ट्या स्फुट तो ज्ञानज्योतिर्बलति सहज येन पूर्णाचसाधिः ॥२१८।। रागद्वेषोत्पादकं तत्त्वदृष्टया नान्यद द्रव्यं वीक्ष्यते किंचनापि । सर्वद्रव्योत्पत्तिरंतश्चकास्ति व्यक्तात्यंतं स्वस्वभावेन यस्मात् ॥२१६॥ ॥ ३६६-३७१ ।। एक० । भणिओ भणितः घाओ घातः-प्रथमा एकः । चरित्तस्स चरित्रस्य-षष्ठी एक० । तहिं तत्र-मयय । पुग्गलदव्यस्स पुद्गलद्रव्यस्य-षष्ठी एक० । णिहिट्ठो निदिष्ट:-प्र० एक० । जीवस्स जीवस्य-पष्ठी एक० । जे ये-प्रथमा बहुगुणा गुणाः-प्रथमा बहु०। ण न-अव्यय । संति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहु० किया। खलु-अव्यय । परेसु दवेसु परेषु द्रव्येषु-सप्तमी बहु । तम्हा तस्मात्-पंचमी एक० । सम्माइटिस्स सम्यमहा:--पाली ए. ! . अन्ना भरिमानान लट् अन्य पुरुष एक० क्रिया । रागो राग:-प्र. ए० । विसएसु विषयेषु सप्तमी बहु० । रागो दोसो मोहो रागः द्वेषः मोहः-प्रथमा एक० । जीवस्स जीवस्य--पष्ठी एक० । एव-अव्यय । अणण्णपरिणामा अनन्यपरिणामा:-प्रथमा बह। एएण कारणेण एतेन कारणेन-तृतीया एक० । सद्दादिसु शब्दादिषु-सप्तमी बहु० । ण न-अव्यय । अस्थि अस्ति-वर्तमान लट् । अन्य पुरुष एक० क्रिया । रागादी रागादयः-प्रथमा बहुवचन ।। ३६६-३७१॥ गया था। अब उस प्रभिन्न कर्तृकमत्वके परिचयसे प्रात्माको क्या शिक्षा व कर्तव्य करना चाहिये उसका कथन इस गाथाषट्कमें बताया गया है। तथ्यप्रकाश-१-मात्माका दर्शन, ज्ञान, चास्त्रि प्रात्मामें ही है । २-प्रचेतन विषय, कर्म, कायके गुण व परिणमन उन्हीं मचेतनोंमें हैं। ३-अचेतन विषय, कर्म व कायके घात होने पर दर्शन, ज्ञान, चारित्रका घात नहीं होता । ४-दर्शन, ज्ञान, चारित्रका पात होनेपर विषय, कर्म व कायका घात नहीं होता। ५--प्रात्माके दर्शन, शान, चारित्र प्रादि कोई भी गुण पुद्गल द्रव्यमें नहीं हैं | ६-- प्रात्माके दर्शन, ज्ञान, चारित्रका विभावपरिणमन भी रागादिक किसी परद्रव्यसे नहीं पाते । ७- रागादिक विभाबपरिणमन परद्रव्यमें नहीं होते। :- रागादिक विभादपरिणमन प्रात्मस्वभावसे नहीं होते ! ६-रामादिक विभाव परद्रव्यमें होते नहीं, प्रात्मस्वभाव में होते नहीं, किन्तु जीवके मशानभय परिणाममें ही रागादिक होते हैं । १०- सम्यग्दृष्टिके प्रज्ञानमय भाव नहीं हैं सो उसके प्रज्ञानमय रागादिकभाव नहीं होते । ११-विभावके उत्पाद व विनाशके तथ्यके प्रजानकार विषयादिके निमित्त अपने गुणका घात करते हैं। १२- अविकार सहजज्ञानानन्दका स्वाद मायेपर विषयकर्मकायसंकट स्वयं दूर हो जाते हैं इस तथ्यके अजानकार स्वसंवेदनरहित कायक्लेशसे ही प्रात्माका दमन करते हैं । १३-हे पात्मन, विषयादिके संग्रहविग्रहरूप घात क्यों व्यर्थ करता है । १४-- हे प्रात्मन्, विषयादिमें तू क्यों
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy