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सर्वविशुवज्ञानाधिकार अण्णदविएण अण्णदवियस्स ण कीरए गुगुप्पाओ। तमा उ सव्वदचा उप्पज्जते सहावेण ॥ ३७२ ॥
अन्य द्रव्यके द्वारा, अन्य द्रव्यका न गुल किया जाता ।
इस कारण द्रव्य सभो, उत्पन्न स्वभावसे होते ॥३७२।। अन्यद्रव्येणान्यद्रव्यस्य न क्रियते गुणोत्पादः । तस्मात्तु सर्वद्रव्याण्युत्पद्यते स्वभावेन ॥ ३७२ ॥
न च जोवस्य परद्रव्यं रागादीन्युत्पादयतीति शंक्य---अन्यद्रव्येशान्यद्रव्यगुणोत्पादकरपस्यायोगात् । सर्वद्रव्याणां स्वभावेनैवोत्पादात् । तथाहि-मृत्तिका कुम्भभावेनोत्पद्यमाना कि कुम्भकारस्वभावेनोत्पद्यते किं मृत्तिकास्वभावेन ? यदि कुम्भकारस्वभावनोत्पाते तदा कुम्भ
___ नामसंज- अण्णदविय, ण, गुणुप्पाअ, त, उ, सम्वदव्व, सहाव; धातुसंश-कर करणे, उब पज गतौ । प्रातिपदिक-अन्यद्रव्य, न, गुणोत्पाद, तत्, सर्वद्रव्य, स्वभाव । मूलधातु-डुकत्र करणे, उत् पद अपना धात करता है। १५- हे भारमन, विषपाकिक लिमिरा घरों तू अपने मोंका पात करता है। १६- हे प्रात्मन्, धर्मके नामपर भी शब्दरूपादि विषयोंका तू क्यों बात करनेका विकल्प करता है। १७- हे प्रात्मन, शब्दादि इन्द्रियविषयोंकी अभिलाषारूप जो रामादि विकारपरिणाम मनमें प्राता है उसका घात करना चाहिये । १८- रागादिकके प्राश्रयभूत कारण होनेसे शन्दादिक विषयोंका त्याग करना चाहिये ।
सिद्धान्त-- १- परद्रव्यके घातादि परिणभनसे प्रात्माके दर्शनादि गुणका बात नहीं, क्योंकि परका द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आत्मामें नहीं है । २-- स्वयंके गुणोंके सुधार विगाइसे स्वयंका सुधार बिगाड़ है।
दृष्टि---१- परद्रव्याद्रिग्राहक द्रव्यापिकनय (२८)। २- शुद्धनिश्चयनय, प्रशुद्धनिश्चयनय (४६, ४७)।
प्रयोग-प्रपनी उन्नतिके लिये परविषयक विकल्प छोड़कर सहज दर्शनशानचारिक मय चैतन्यस्वरूपका पाश्रय करना ॥ ३६६-३७१ ।।
अब कलशरूप काम्यमें कहते हैं कि अन्यद्रम्पसे अन्यतम्यके गुण उत्पन्न नहीं होते। रागद्वेषो इत्यादि । प्रर्थ-तत्वदृष्टि से रागद्वेषका उत्पन्न करने वाला अन्यद्रव्य कुछ भी नहीं दोखला क्योंकि सब इन्योंकी उत्पत्ति प्रपने ही निज स्वभाव में प्रत्यंत प्रगट प्रकाशित होती है । भावार्ष-अन्यद्रव्यमें अन्यके गुणपर्यायोंको उत्पत्ति नहीं है स्वयं ही सायंमें होता है।
अब अन्यद्रव्य के द्वारा मन्यद्रव्यका गुणोत्पाय नहीं होता यह तथ्य गावामें कहते हैं:--- [अन्यतम्येण] अन्यद्रव्यके द्वारा [अम्बामस्य] अन्यद्रव्यके [गुणोत्पा] गुणका उत्पाद