SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 492
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बन्धाधिकार पुमान मरणजीवितदुःखसौख्यं ॥१६॥ अज्ञानमेतदधिगम्य परात्परस्य पश्यति ये भरणजीवितदुःखसौख्यं । कर्माण्यहंकृतिरसेन चिकीर्षवस्ते मिथ्यादृशो नियतमात्महनो भवंति ॥१६६॥ ।। २५४-२५६ ।। तत् आदि । मूलधातु-भू सत्तायां, बुदात्र दाने, अस् भुवि । पदविवरण--कम्मोदयेण कर्मोदयेन-तृतीया एकवचन । जीवा जीवा:-प्रथमा बहु०। दुक्खिदसुहिदा दुःखितसुखिता:-प्रथमा बहु० । हवंति भवंतिवर्तमान लट् अन्य पुरुष बहु० । जदि यदि-अव्यय । सव्वे सर्वे-प्रथमा बहु । कम्म कर्म-द्वितीया एक० । देसि ददासि-वर्तमान लट् मध्यम पुरुष एक० क्रिया । तुम त्व-प्रथमा एक० आदि पूर्ववत् ।। २५४-२५६ ।। रखते हैं वे मिथ्यादृष्टि हैं तथा अपने स्वरूपसे च्युत होकर रागो द्वेषो मोही होनेके कारण स्वयं अपना घात करते हैं इस कारण वे हिंसक हैं । । प्रसंगविवरण----प्रनंतरपूर्व गाथामें बताया गया था कि परजीवके प्रति दुःख मुख करनेका अध्यवसाय प्रज्ञान है । अब इन तीन गाधाषोंमें यह बताया गया है कि दुःख सुख करनेका अध्यवसाय प्रज्ञान कैसे है ? तध्यप्रकाश-१) जीव अपने भनार्मोदय पुरली होते हैं। (२) जीव अपने अशुभकर्मोदयसे दुःखी होते हैं । (३) शुभ कर्मोदयके बिना जीव सुखी नहीं हो सकते । (४) जीव प्रशुभ कर्मोदयके बिना दुःखी नहीं हो सकते । (५) अन्यका कर्म किसी अन्यके द्वारा नहीं दिया जा सकता है । (६) शुभ अथवा अशुभ सभी कर्म अपने परिणामसे ही अजित होता है । (७) उरत कारणोंसे कोई भी जीव किसी अन्य जीवका सुख दुःख नहीं कर सकता है । (८) मैं दुसरोंको दुःखी करता हूं यह अध्यवसाय अज्ञान है । (९) मैं दूसरोंको दुःखी करता हूं, यह अध्यवसाय प्रज्ञान है । (१०) मैं दूसरोंके द्वारा सुखी किया जाता हूं, यह मध्यवसाय प्रज्ञान है । (११) मैं दूसरों के द्वारा सुखी किया जाता हूं, यह अध्यवसाय अज्ञान है । (१२) दूसरोंको सुखो दुःखी करनेके अहंकार रससे विचित्र चेष्टाय करते हुए मिथ्याष्टि जीव अपना हो घात करते हैं। सिद्धान्त—(१) शुभाशुभ कर्मोदयका निमित्त पाकर जीव सुखी अोर दुःखी होते हैं । (२) सुखी दुःखी करनेके अहंकार विकल्पसे परिणत जीव अपने पापको प्राकुलित करते हुए प्रज्ञानसे स्वयंका घात करते हैं। दृष्टि-१- उपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिकमय (२४) । २- अशुद्धनिश्चयनय (४७) । प्रयोग हम अपने प्रापका ही परिणमन कर सकते हैं किसी अन्यका नहीं ऐसा जानकर अपने स्वभावका अवलम्बन करके अपनेको प्रनाकुल व पवित्र रखना ॥२५४-२५६॥
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy