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________________ समयसार स्य सुखदुःखे कुर्यात् । प्रत: सुखितदुःखितश्च क्रिये चेत्यध्यवसायो ध्र वमज्ञानं । सर्व सदैव नियतं भवति स्वकोयकर्मोदयान्मरणजीवितदुःखसौख्यं । अज्ञानमेतदिह यत्तु परः परस्य कुर्यात् जीव. दाक्ति सहिदा. जदि. सध्व. कम्म, च. ण. तम्ह, कहा, तम्ह, सहिद, कद, त। धातसंज्ञ-हव सत्तायां, दा दाने, अस सत्तायां । प्रातिपदिक-कर्मोदय, जीव, दुःखितसखित, यदि, सर्व, कर्मन्, युष्मद, कर्थ, कृत, सुखी [भवंति] होते हैं [च] और वे [तब तुझको [कर्म] कर्म [न बदति ] दे नहीं सकते तो [तैः] उनके द्वारा [त्वं सुखितः] तू सुखी [कथं कृतः] कैसे किया गया ? तात्पर्य—साता असाता प्रकृतिकर्मोदयसे ही जीव सुखी दुःखी होते हैं तो किसीने किसी दूसरेको सुखी दुःखी किया यह मानना अज्ञान है । टीकार्य-सुख-दुःख तो जीवोंको अपने कर्मोदयसे ही होते हैं, क्योंकि कर्मोदयका प्रभाव होनेपर उन सुख-दुःखोंके होनेको अशक्यता है । और अन्य पुरुषके द्वारा अपना कर्म अन्यको दिया नहीं जा सकता, क्योंकि वह कर्म अपने-अपने परिणामोसे ही उत्पन्न होता है, इस कारण अन्य कोई अन्य दूसरेको सुख-दु:ख किसी तरह भी नहीं दे सकता । अत: "मैं परजीवोंको मुखी दुःखी करता हूं और परजीवोंसे मैं सुखी-दुःखी किया जाता हूं" यह अध्यवसाय निश्चयसे अज्ञान है । भावार्थ-सब जीव अपने-अपने कमंदियसे सुखो दुःखी होते हैं । फिर भी जो ऐसा माने कि मैं परजीवको सुखी-दुःखी करता हूं और परजीव मुझे सुखी-दुःखी करते हैं तो यह मानना निश्चयसे अज्ञान है । हों, प्राश्रयभूत कारण याने नोकर्मको दृष्टिसे अन्यको अन्यका सुख-दुःखका करने वाला कहते हैं सो यह उपचार है । निमित्तनैमित्तिक भावकी दृष्टि से सुख-दुःख का करने वाला कर्मोदय है। अब इसी अर्थको कलशमें कहते हैं-सर्प इत्यादि । अर्थ-इस लोक में जीवोंके जीवन मरण दुःख सुख सभी सदैव नियमसे अपने-अपने कमोदयसे होते हैं । तब कोई पुरुष अन्यके जीवन मरण दुःख सुखको करता है, यह मानना अज्ञान है । भावार्थ-कोई जीव किसी दूसरेको सुख-दुःख देनेका निमित कारण भी नहीं है, फिर भी किसीको अन्यका सुस्व. दुःखदाता मानना, यह बिल्कुल अज्ञान है। अब फिर इसी अर्थको दृढ़ करते हुए कहते हैं- अज्ञान इत्यादि । अर्थ-इस पूर्व. कथित प्रज्ञानको प्राप्त करके जो पुरुष परसे परका जीवन, मरण, दुःख-सुख होना मानते हैं वे पुरुष "मैं इन कर्मोको करता हूं" ऐसे अहंकाररससे कर्मोके करनेके इच्छुक याने मारने जिलानेके सुखी दुःखी करनेके इच्छुक प्राणी नियमसे मिथ्यादृष्टि हैं और अपने प्रात्माका हो घात करने वाले होते हैं । भावार्थ-जो परको मारने जिलाने तथा सुख-दुःख करनेका प्राशय
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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