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________________ मानवाधिकार ३१६ यदसंभवः । तत एव न बंधोऽस्य, ते हि बंधस्य कारणं ॥११६।। ॥ १७३-१७६ ।। हवंति भवन्ति-वर्तमानः अन्य. बहु । उपभोज्जा उपभोग्यानि-प्र. बह । सत्तविहा सप्ताष्ट्रविशतिप्रथमा बहु० । भूदा भूतानि-प्रथमा बहु० । णाणावरणादिभावेहि ज्ञानावरणादिभावै:-तृ० बहू । एदेण एतेन-तृ० एक०। कारणेण कारणेन-तृ एक० । दु तु-अव्यय । सम्मादिट्ठी सम्यादृष्टि:-प्रथमा एक० । अबंधगो अबन्धकः-प्रथमा एक० । होदि भवति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकल ! आसव भावाभावे आस्रवभावाभावे-सप्तमी एक । ण न-अव्यय । पच्चया प्रत्यया:-प्रथमा बहु० । बन्धगा बन्धका:--प्रथमा बहु० । भणिदा भणिता:-प्रथमा बहुवचन ।। १७३-१७६ ॥ हेतु नहीं होते। दृष्टि --१--स्वभावनय (१७६) । २--उपाध्यभावापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनय (२४५)। प्रयोग-कर्मास्रवणसे निवृत्त होनेके लिये तथा पूर्वबद्धकर्मके विषरससे बचनेके लिये अविकार सहन सिद्ध चित्प्रकाशमात्र अन्तस्तत्व में उपयोग देना व दिये रहना ॥१७३-१७६।। अब इसी अर्थको दृढ़ करनेके लिए गाथाकी उत्थानिका रूप श्लोक कहते हैं;---राग इत्यादि । अर्थ-चूँकि ज्ञानीके राग द्वेष मोहका होना असंभव है प्रत: ज्ञानीके बंध नहीं है क्योंकि रागद्वेषमोह ही बंधके कारण हैं। भावार्थ---ज्ञानीके मोह तो है ही नहीं, जो कर्मविपाकवश रागद्वेष होते हैं वे अभिप्रायपूर्वक नहीं, अतः ४१ प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता, शेष बन्ध भी विशेष नहीं होता और जो दशम गुरणस्थानसे ऊपरके ज्ञानी हैं उनके किंचिन्मात्र भी बन्ध महीं है, सिर्फ योग रहने तक ई-पथ प्रास्रव होता है-[रागः] राग [षः] द्वेष [च मोहः] और मोह प्रिास्त्रवाः] ये प्रास्रव [सम्यग्दृष्टेः] सम्यग्दृष्टिके [न संति नहीं हैं [तस्मात् ] इसलिये [मानवमाधन विना] पासवभावके बिना [प्रत्ययाः] द्रव्यप्रत्यय [हतकः] कर्मबन्धका कारण [न भवंति नहीं हैं [चतुर्विकल्पः] मिथ्यात्व प्रादि चार प्रकारका [हेतुः] हेतु [अष्टविकल्पस्य] पाठ प्रकारके कर्मके बंधनेका [कारणं भरिणतं] कारण कहा गया है [] और [तेषामपि उन चार प्रकारके हेतुनोंके भी [रागादयः] जीवके रागादिकभाव कारण हैं सो सम्यग्दृष्टिके [तेषां प्रभावे] उन रागादिक भावोंका प्रभाव होनेपर [न बध्यते] कर्म नहीं बँधते हैं। तात्पर्य-सम्यम्हष्टि के अज्ञानमय रागद्वेष मोहका प्रभाव होनेसे संसारविषयक बन्ध नहीं होता। ___टीकार्थ--सम्यग्दृष्टिके रागद्वेष मोह नहीं हैं; अन्यथा सम्यग्दृष्टिपना नहीं बन सकता। रागद्वेष मोहका प्रभाव होनेपर उस सम्यग्दृष्टिके द्रव्यप्रत्यय पुद्गलकर्मबंधके कारणपनेको नहीं धारण करते । क्योंकि द्रव्यप्रत्ययोंके पुद्गलकर्मबंधका कारणपना रोगादिहेतुक ही है, इसलिये
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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