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________________ समयमार बंब हेतुत्वात् । विजहति नहि सत्ता प्रत्ययो: पूर्वबद्धा: समयमनुसरंतो यद्यपि द्रव्यरूपाः । तदपि सकलरागद्वेषमोहव्युदासादवरति न जातु ज्ञानिन: कर्मबंधः ।।११।। रागद्वेषविमोहानां ज्ञानिनो णिबद्धा पूर्वनिबद्धा:-प्रथमा बहु० । दुतु-अन्यय । संति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहु० क्रिया । सम्मादिदिस्म सम्यग्दृष्ट:-षष्ठी एक० । उवओगप्पाउम्ग उपभोगप्रायोग्य-क्रियाविशेषण यथा स्यात्तथा, बंधते बध्नन्ति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहुवचन । कम्मभावेण कर्मभावेन-तृतीया एक० । संति-प्रथमा बहु० कृदंत, दु तु-अव्यय । णिरुव भोज्जा निरुपभोग्यानि-प्र० बहु० । वाला-प्रथमा एक० । इत्थी स्त्री-प्रथमा एक० । जह यथा-अव्यय । परस्स नरस्य-षष्ठी एकः । होगुण भूत्वा-असमाप्तिकी क्रिया । निरुवभोज्जा निरुपभोग्यानि-प्र. बहु० । तह तथा अव्यय । बंधदि बध्नाति-वर्तमान लट् अन्य बहु० जह यथा--अव्यय । शानी होता है तब सा दिवालव हो गाया है। अब इस अर्थका कलगरूप काव्य कहते हैं-विजहति इत्यादि । अर्थ.....यद्यपि अपने अपने समयमें उदय पाने वाले पूर्वबद्ध द्रव्यरूप प्रत्यय अपनी अपनी सत्ताको नहीं छोड़ रहे याने वे हैं तो भी ज्ञानीके समस्त रागद्वेष मोहके प्रभावसे नवीन कर्मका बंध कभी अवतार नहीं घरता । भावार्थ-राग द्वेष मोह भावोंके बिना सत्तामें रहने वाले द्रव्यास्रव बंधका कारण नहीं है । यहां सर्वत्र बताये गये राग द्वेष मोहके प्रभावसे बुद्धिपूर्वक होने वाले रागादिका अभाव समझना । प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि ज्ञान के जघन्य भावसे अनुमीयमान अबुद्धिपूर्वक कमंकलंकविपाक होनेसे दशम गुणस्थान तक ज्ञानी नाना पुद्गलकमसे बंधता है । सो इस कथनपर प्रश्न हग्रा कि जब द्रव्य प्रत्ययसंतति पाई जा रही है तो फिर ज्ञानीको निरालव कैसे कहा जा सकता है ? इस प्रश्नका समाधान इस गाथाचतुष्कमें किया गया है। तध्यप्रकाश--१. बद्धकर्म जब सत्तामें रह रहे हैं तब वे कर्म उपभोग्य नहीं हैं। २-जब वे कर्म उदयमें आते हैं तब ज्ञानीके उसके अनुभागरसमें राग न होनेसे अज्ञानमय राग द्वेष मोहरूप प्रास्रव भाव नहीं है । ३-प्रज्ञानमय राग द्वेष मोहरूप प्रास्रवभावके प्रभाव से ज्ञानीके द्रव्यप्रत्यय प्रायोग्य नवकर्मके प्रास्त्रंबके हेतु नहीं हो पाते । ४. जैसे बाला स्त्री अनुपभोग्य है वह जब युवती होगी उससे पहिले पुरुष यदि विरक्त हो तब वह कभी भी उपभोग्य न हो सकी, ऐसे ही जब कर्म सदवस्य है तब अनुपभोग्य हैं, वे जब बिपाकोदयमें प्रावेंगे उससे पहिले ही यह जीव यदि ज्ञानमय व विराग हो जाय तो वे कभी भी उपभोग्य न हो सके । ५-प्रबुद्धिपूर्वक (अव्यक्त) उपभोगको यहाँ उपभोग नहीं माना है। सिद्धान्त-१- अविकार सहज शुद्ध ज्ञानस्वभावकी उपासनामें कर्म अनुपभोग्य हो जाते हैं । २.द्रव्यप्रत्ययोंको निमित्तत्वका निमित्त अध्यवसान न मिलनेसे वे द्रव्यप्रत्यय बन्धक
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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