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________________ प्रास्रवाधिकार ३१७ सर्वे पूर्वनिबद्धास्तु प्रत्ययाः संनि सम्यग्दृष्ट: । उपयोगप्रायोग्य बनति कर्मभावेन ॥१७३ ।। संति तु निरुपभोग्यानि बाला स्त्री यह पुरुषस्य । बध्नाति तानि उपभोग्यानि तरुणी स्त्री यथा नरस्य । भूत्वा निरुपभोग्यानि तथा बध्नाति यथा भवत्युपभोग्यानि । सप्ताष्टविधानि भूतानि शानावरणादिभावः । एतेन कारणेन तु सम्यग्दृष्टिरबंधको भवति । आस्रवभावाभावे न प्रत्यया बंधका भणिताः ॥ १७६ ।। यतः सदवस्थायां तदात्वपरिणीतबालस्त्रीवत् पूर्वमनुपभोग्यत्वेऽपि विपाकावस्थायां प्राप्तयौवन पूर्वपरिणीतस्त्रीवत् उपभोग्यत्वाद् उपयोगप्रायोग्यं पुद्गलकर्मद्रव्यप्रत्ययाः संतोऽपि कर्मोदयकार्यजीवभावसद्धाबादेव बध्नति ततो ज्ञानिनो यदि द्रव्यप्रत्ययाः पूर्वबद्धाः संति, संतु, तथापि स तु निरास्तव एवं कर्मोदयकार्यस्य रागद्वेषमोहरूपस्यास्रवभावस्याभावे द्रव्यप्रत्ययानामसत्तविह, भूद, गाणावरणादिभाव, एत, कारण, दु, सम्मादिट्रि, अबंधग, आसवभावाभाव, ग, पच्चय, बंधग, भणिद । धावसंश-णि-बंध बंधने, अस भुवि, मुंज भोगे, बर स्वीकाराच्छादनयो:, भण कथने, आसद सवणे, ही सशाया। प्रतिपदिक ..सतं, पूर्वनिवर, कपर, सम्यग्दृष्टि, उपभोगप्रायोग्य, कर्मभाव, निरुपभोग्य, बाला, स्त्री, यथा, इह, पुरुष, तत्, उपभोग्य, तरुणी, स्त्री, यथा, नर, निरुपभोग्य, तथा, यथा, उपभोग्य, सप्ताष्टविध, भूत, ज्ञानावरणादिभाव, एतत्, कारण, तु, सम्पष्टि, अबन्धक, भणित, आसवभावाभाव, न, प्रत्यय, बन्धक, भणित । मूलपातु-बन्ध बन्धने, अस भुवि, युजिर् योगे, भुज पालनाभ्यवहारयोः रुधादि, ने नये भ्वादि क्र यादि, भू सत्तायां । पदविवरण-सव्वे सर्वे-प्रयमा बहु० । पुन्दभोग्य होनेपर भी विपाक अवस्थामें यौवन अवस्थाको प्राप्त उसी पूर्व परिणीत स्त्रोकी तरह भोगने योग्य होनेसे जैसा प्रात्माका उपयोग विकार सहित हो उसो योग्यताके अनुसार पुद्गल कर्मरूप द्रव्यप्रत्यय सत्तारूप होनेपर भी कर्मके उदयानुसार जीवके भावोंके सद्भावसे ही बंध को प्राप्त होते हैं । इस कारण ज्ञानीके द्रव्यकर्मरूप प्रत्यय (मास्रव) सत्तामें मौजूद हैं तो भी वह ज्ञानी तो निरासक ही है, क्योंकि कर्मके उदयके कार्यरूप राग द्वेष मोह रूप प्रास्त्रवभावके प्रभाव होने पर द्रव्यप्रत्ययोंके बन्धकारापना नहीं है। भावार्थ-सत्तामें मिथ्यात्वादि द्रव्यप्रत्यय विद्यमान हैं तो भो वे मागामी कर्मबंधके करने वाले नहीं हैं। क्योंकि बन्ध तो उनका उदय होनेपर ही होता है । और उनकी इस निमित्तताका भी निमित्त जोधके राग द्वेष मोहरूप भाव होते हैं अतः द्रव्यप्रत्ययके उदयके और जीवके भावोंके कार्यकारणभाव निमित्तनैमित्तिकभाव रूप है। सत्तामें विद्यमान द्रव्यकर्म विकारके निमित्त नहीं होते। जैसे विवाहिता बाला विकारका कारण नहीं बनती, वही जब तरुणी होती है तो विकारका कारण बनती है, यदि पुरुष उसके तरुणी होनेके पहिले विरक्त हो जाय तो लो वह तरुणी भी विकारकारक नहीं बनी, ऐसे हो उस विवक्षित कर्मविपाकसे पहिले यह आत्मा ज्ञानी विरक्त हो जाय तो कर्मविपाकका भी जोर नहीं रहता इस तरह अपेक्षासे सम्यग्दृष्टि हुए बाद चारित्रमोहका उदयरूप परिणाम होनेपर भी शानी हो कहा गया है । और शुद्धस्वरूपमें लीन रहनेके अभ्याससे समाधिबलसे केवलज्ञान प्रकट होनेसे साक्षात्
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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