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कर्तृकर्माधिकार
१७१ स्य कर्ता कदाचित्स्यात् । मृत्तिकया · वसनस्येव स्वेन भावेन परभावस्य कर्तु मशक्यत्वात्पुद्गल. भावानां तु कर्ता न कदाचिदपि स्यादिति निश्चयः । ततःस्थितमेतञ्जीवस्य स्वपरिणामैरेय सह कर्तृकर्मभावो भोक्तभोग्यभावश्च ।।८०.८२।। प्रशास' जनन दर्ता : अभि-जनम ! परिणालि वर्तमान अन्य पूरुप एक० । करोति-वर्तमात लट् अन्य पुरुष एक० । कर्मगुणान्-द्वितीया बह० । जीव:-प्रथमा एकल । कर्म-प्रथमा एक० । जीवगुणान-द्वितीया बहु । अन्योन्यनिमितेन-तृतीया एक० । तु, परिणाम-द्वितीया एक० । जानीहिन्लोद आजा मध्यम पुरष एक । यो:-पाठी द्विवचन । एतेन-तृतीया एक० । कारणेन-तृ० एक० । कर्ता-प्रथमा एक । आमाप्रथमा एक । स्वत्रेन-तृतीया एक० । भावेन-तृतीया एक० । पुद्गलकर्मकृताना-पाठी बहु ! कर्ताप्रथमा एक० । सर्वभावानां-पप्ठी बहुवचन ।। ८०-८२ ॥
प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व स्थलमें जीवका व पुद्गलकर्मका परस्पर कर्तृ कर्मभाव होता ही नहीं है इसका भले प्रकार सबिवरण वर्णन किया। इसके सुनने पर यह जिज्ञासा होती कि किसी भी पदार्थमें परसम्पर्क बिना विकार ही नहीं होता, यदि परसंग बिना विकार होने लगे तो विकार स्वभाव बन बैठेगा फिर तो विकार कभी नष्ट भी न होगा, संसार ही सदा रहेगा, मुक्ति भी न हो सकेगो । तो विकार कैसे होता इसका समाधान इन ३ गाथाबों में किया ग" है।
तथ्यप्रकाश--- १- जीवके कषायभाव व योगका निमित्त पाकर पुदगल काणिवर्गणायें कर्मरूप परिणम जाती हैं । २--पद्गल कर्मोदयका निमित्त पाकर जीव विभावपरिणाम रूप परिणम जाता है । ३–जीवविभाव व कर्मत्वपरिणाममें निमित्तनैमित्तिक भाव होनेपर भी परस्पर कर्तृकमत्व बिल्कुल नहीं है । ४- जीव अपने परिणाममें ही व्यापक है अतः जीव अपने परिणामका ही कर्ता भोक्ता है।
सिद्धान्त-१- पुद्गल कर्मप्रकृतिके विपाकोदयसे जीव विकाररूप परिणमता है। २-जीवविभाव उस समय जीवमें ही व्याप्य है अतः जीवविभाव जीवका वर्म है । ३- कर्मत्व उस समय कार्माण वर्गणामें ही व्याप्य है, अतः कर्मत्व पुद्गलकार्माणवर्गणाका कर्म है ।
दृष्टि-१-उपाधिसापेक्ष अशुद्धद्रव्याधिकनय (२४) । २- अशुद्ध निश्चरनय (४७) । ३- कारककारकिभेदक अशुद्ध सद्भूतव्यवहार (७३अ)।
प्रयोग--विकारोंको नैमित्तिक जानते हुए अस्वरूप जानकर तथा निमित्ताधीन न जानते हुए अपनी भूल पहिचानकर प्रज्ञान हटाकर अविकार सहजज्ञानस्वरूप में रमनेका पौरुष करना ।। ८०-८२ ।।
उपर्युक्त हेतुसे यह सिद्ध हुआ कि जीवका अपने परिणामोंके ही साथ कर्तृकर्मभाव