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________________ समयसार व्याप्यच्यापकभावाभावाज्जीवस्य पुद्गलपरिणामानां पुद्गलकर्मणोपि जीवपरिणामानां कर्तृ कर्मस्वासिद्धौ निमित्तनैमित्तिकभावमांत्रस्याप्रतिपिद्धत्वादितस्तरनिमित्तमात्रीभवनेनैव योरपि परिणामः । ततः कारणान्मृत्तिकया कलशस्येव स्वेन भावेन स्वस्य भावस्थ करणजिनीवः स्वभावकारण, तु, कर्तृ, आत्मन्, स्वक, भाव, पुद्गलकर्मकृत, न, तु, कर्तृ सर्वभाव । मूलधातु - जीव प्राणधारणे, परिणम प्रवत्वे. नि-त्रिमिदा स्नेहने भ्वादि, नि-जिमिदा स्नेहने दिवादि, अत सातत्यगमने। पदविवरण जीवपरिणामहेतु-द्वितीया एक ० । कर्मत्व-द्वि० ए० । पुद्गला:-प्रथमा बहु० कर्ता । 'परिणमन्तिवर्तमान लट् अन्य पुरुष बहु० । पुद्गलकर्मनिमित-द्वितीया एक० । तथा अव्यय । गव-अव्यय । जीव:उसी प्रकार [जीवः अपि] जीव भी [पुद्गलकर्मनिमित्तं पुद्गलकर्मका निमित्त पाकर [परिणमति] परिणमन करता है । तो भी [जीवः] जीव [कर्मगुणान] कर्मके गुणोंको [नापि] नहीं [करोति] करता [तथैव] उसी भांति [कर्म] कर्म [जीवपुरणान्] जीवके गुणों को नहीं करता। [तु] किंतु [द्वयोरपि] इन दोनोंके [अन्योन्यनिमित्तेन] परस्पर निमित्तमात्रसे [परिणाम] परिणाम [जानीहि] जानो [एतेन कारणेन तु] इसी कारणसे [स्वकेन भावेन] अपने भावोंसे [प्रात्मा] आत्मा [फर्ता] कर्ता कहा जाता है [तु] परंतु [पुद्गलकमंकृताना] पुद्गल कर्म द्वारा किये गये [सर्वभावानां] समस्त हो भावोंका [कर्ता न] कर्ता नहीं है । तात्पर्य-जीवभाव व पुद्गलकर्म में परस्पर निमित्तनैमित्तिकभाव तो है, किन्तु उनमें परस्पर कर्तृकर्मभात्र रंच भी नहीं है । टोकार्थ-जिस कारण जीवपरिणामको निमित्तमात्र करके पुद्गल कर्मभावसे परिण__णमन करते हैं और पुद्गलकर्मको निमित्तमात्र कर जीव भी परिणमन करता है। ऐसे जोव के परिणामका तथा पुद्गलके परिणामका परस्पर हेतुत्वका स्थापन होनेपर भी जीव और पुद्गलके परसार व्याप्यव्यापक भावके अभावसे जीवके तो पुद्गलपरिणामोंका और पुद्गलकर्मके जीवपरिणामोंका कर्तृकर्मपनेकी प्रसिद्धि होनेपर निमित्तनैमित्तिक भावमात्रका निषेध नहीं है, क्योंकि परस्पर निमित्तमात्र होनेसे ही दोनोंका परिणाम है। इस कारण मृत्तिकाके कलशकी तरह अपने भाव द्वारा अपने भावके करनेसे जीव अपने भावका कर्ता सदा काल होता है । तथा मृत्तिका जैसे कपड़ेकी कर्ता नहीं है, वैसे ही जीव अपने भाव द्वारा परके भावोंके करनेकी असमर्थतासे पुद्गलके भावोंका तो कर्ता कभी नहीं है ऐसा निश्चय है। भावार्थ-जीव और पुद्गलके परिणामोंकी परस्परनिमित्तमात्रता है तो भी उनमें परस्पर कर्तृकर्मभाव नहीं है । पुद्गलकर्मविपाकके निमित्तसे जो जीवके भाव हुए उन आवोंका कर्ता तो जीवको अज्ञान दशामें कदाचित कह भी सकते हैं, लेकिन जीव परभावका कर्ता कभी नहीं हो सकता।
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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