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________________ कर्तृकर्माधिकार १६६ .. जीवपुद्गलपरिणामयोरन्योन्यनिमित्तमानत्वमस्ति तथापि न तयोः कर्तृकर्मभाव इत्याह जीवपरिणामहेदु कम्मत्तं पुग्गला परिणमंति। पुग्गलकम्मणिमित्तं तहेव जीवो वि परिणमइ ॥८॥ गणवि कुब्वइ कम्मगुणे जीवो कम्मं तहेव जीवगुणे । अण्णोरणणिमित्तेण दु परिणाम जाण दोहम्पि ॥८१॥ एएण कारणेण दु कत्ता आदा सणए भावेण । पुग्गलकम्मकयाणं ण दु कत्तो सवभावामां ॥२॥ जीवविभावनि कारण, पुद्गल कमत्वरूप परिणमते । पुद्गलविधिके कारण, तथा यहां जीव परिणमता ॥५०॥ जीव नहि कर्मके गुण, करता नहि जीव कमके गुरणको । मान्योन्यनिमित्तोंसे, उनके परिणाम होते हैं ॥१॥ इस कारणसे पात्मा, कर्ता होता स्वकीय मायोंका । नहि कर्ता यह पुदगल, कर्मविहित सर्वभावोंका ॥२॥ जीवपरिणामहेतु कर्मत्वं पुद्गला: परिणमंति । पुद्गल कर्मनिमित्तं तथैव जीवोपि परिणमति । नापि करोति कर्मगुणान् जीवः कर्म तथैव जीवगुणान् । अन्योन्यनिमित्तेन तु परिणाम जानीहि द्वयोरपि । एतेन कारणेन तु कर्ता आत्मा स्वकेन भावेन । पुद्गलकर्मकृतानां न तु कर्ता सर्वभावानां । यतो जीवपरिणाम निमित्तीकृत्य पुद्गलाः कर्मक्षेन परिणमंति पुद्गलकर्म निमित्तीकृत्य जीवोपि परिणमतीति जोवपुद्गलपरिणामयोरितरेतरहेतुत्वोपन्यासेपि जीवपुद्गलयोः परस्परं नामसंज- जीवपरिणामहेदु, कम्मत्त, पुग्गल, पुग्गलकम्मणिमित्त, तह, एव, जीव, वि, ण, वि, कम्मगुण, जीव, कम्म, तह, एव, जीवगुण, अण्णोणणिमित्त, दु, परिणाम, दु, वि, एत, कारण, दु, कत्तु, अत्त, सय, भाव, पुग्गलकम्मकय, ण, दु, कत्तु, सव्वभाव । धातुसंज्ञ-परि-नम नम्रीभावे, कुव्व करणे, जाण अवबोधने । प्रकृतिशम्द---जीवपरिणामहेतु, कर्मत्व, पुद्गल, पुद्गलकर्मनिमित्त, तथा, एव, जीव, अपि, न, अपि, कर्मगुण, जीव, कर्मन्, तथा, एक, जीवगुण, अन्योन्यनिमित्त, तु, परिणाम, द्वि, अपि, एतत्, (४७) । ३- प्रतिषेधक शुद्धनय (४६)। प्रयोग--अपने हो परिणमनसे परिणमने वाले पुद्गलकर्मके प्रतिफलनमें रंच भी लगाव न रखकर अपने अविकार सहज ज्ञानस्वरूप में स्वत्व अनुभवनेका पौरुष करना ॥७९॥ अब कहते हैं कि जीवके परिणाममें और पुद्गलके परिणाममें परस्पर निमित्तमात्रता है तो भी उन दोनों में कर्तृकर्मत्व नहीं है-[पुद्गलाः] पुद्गल [जीवपरिणामहेतु] जीवके परिणामका निमित्त पाकर [कर्मत्यं] कर्मत्वरूप [परिणमंति] परिणमन करते हैं [तया एवं]
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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