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________________ १६८ समयसार मंतापकं भूत्वादिमध्यांतेषु व्याप्य तमेव गृह्णाति तथैव परिणति तथैवोत्पद्यते च । ततः प्राप्यं विकार्य निर्वयं च व्याप्यलक्षणं परद्रयपरिणाम कर्माकुर्वाणस्य जीवपरिणाम स्वपरिरणामं स्वपरिणामफलं चाजानतः पुद्गलद्रव्यस्य जीवेन सह न कर्तृकर्मभावः । ज्ञानी जानन्नपीमां स्वपरपरिणति पुद्गलश्चाप्यजानन्, व्याप्तृव्याप्यत्व मंतः कलयितुमसही नित्यमत्यंतभेदात् । अज्ञानात्क कर्मभ्रमतिरनयो ति तावन्न यावत्, विज्ञानाश्चिश्चकास्ति क्रकचवददयं भेदमु. त्पाद्य सदा ॥५०॥ ॥६!! गतौ भ्वादि, पूरी अप्यायने दिवादि, गल अपने भ्वादि । पदविवरण-न-अव्यय । अपि-अव्यय । परिणमति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । न-अव्यय | गृह्णाति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । उत्पद्यते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । न-अव्यय । परद्रव्यपर्याये-सप्तमी एक० । पुद्गलद्रव्यं-प्रथमा एक० अपि-अव्यय । तथा-अव्यय । परिणमति, स्व:-तृतीया बहुवचन स्वार्थे कः। भाव:-तृतीया बहुवचन-७१।। अतः इनके कर्तृ कर्मभाव मानना भ्रमबुद्धि है । सो जब तक इन दोनोंमें करोतकी तरह निर्दय होकर उसी समय भेदको उपजाकर भेदज्ञान प्रकाश वाला ज्ञान प्रकाशित नहीं होता, यह भ्रमबुद्धि तभी तक है। भावार्थ-भेदज्ञान होनेके बाद पुद्गल और जीवके कर्तृकर्मभावको बुद्धि नहीं रहती, क्योंकि भेदज्ञान नहीं होने तक ही अज्ञानसे कर्तृकर्मभावकी बुद्धि रहती है । प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व स्थल में जीव जीवके ही विषयमें यह बताया गया था कि जीव पुद्गलकर्मको, पुद्गलकर्मफलको व अपने परिणामको जानता है तो भी उसका पुद्गलकर्मके साथ कर्तृकर्मभाव नहीं है । इस विवरणके सुनने के बाद यह जिज्ञासा होती है कि जीवपरिणामको, अपने परिणमनकों और अपने विपाकको न जान सकने वाले पुद्गलद्रव्य का जीव के साथ कर्तृकर्मभाव है या नहीं ? इसके समाधान में यह गाथा दी गई है । तथ्यप्रकाश-(१) पुद्गलकर्म अचेतन है वह न जीवके परिणामको जान सकता है, न अपने (पुद्गलकर्मके) परिणमनको जान सकता है, न अपने (कर्मके) बिपाकको जान सकता है। (२) पुदगलकम अपने परिणमन में ब अपने अनुभागमें ही अन्तापक है वह जीवके परिणामको न ग्रहण कर सकता, न जीवपरिणामरूप परिणम सकता है, न जीवपरिणामरूपसे उत्पन्न हो सकता है । (२) पुद्गलद्रव्य जीवपरिणामका कर्ता नहीं है । सिद्धान्त-(१) पुद्गलकार्मागस्कन्ध अपने ही प्रकृतिस्थिति प्रदेश अनुभागरूप में वर्तता है । (२) जीव संसारदशामें कर्मदशानुरूप अपने उपयोगके परिणमनस्म परिणमता है । (३) पुद्गलद्रव्य जीवके परिणामका न कर्ता है, न भोक्ता है। दृष्टि-- १- सभेद अशुद्ध निश्चयनय (४७५) । २- सभेद प्रशुद्ध निश्चयनय
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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