SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 218
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्माधिकार १६७ जीवपरिणामं स्वपरिरणामं स्वपरिणामफलं वाजानतः पुद्गलद्रव्यस्य सह जीवेन कर्तृकर्ममावः किं भवति किं न भवतीति चेत्- विपरिणमदि गिहृदि उत्पज्जदि ग परदव्वपज्जाए । पुग्गलदव्वं पि तहा परिणामह सएहिं भावेहिं ॥ ७६ ॥ पुद्गलकर्म भी तथा परिणमता है स्वकीय भावों में । नहि परिणमे न पावे, उपजे न परार्थभावोंमें ॥७६॥ मापि परिणमति न गृह्णात्युत्पद्यते न परद्रव्यपर्याये | पुद्गलद्रव्यमपि तथा परिणमति स्वकैर्भावैः ॥७९॥ यतो जीवपरिणामं स्वपरिणामं स्वपरिणामफलं वाप्यजानत् पुद्गलद्रव्यं स्वयमंतप भूत्वा परद्रव्यस्य परिणामं मृत्तिकाकलशमिवादिमध्यांतेषु व्याप्य न तं गृह्णाति न तथा परिणमति न तथोत्पद्यते च । किंतु प्राप्यं विकार्यं निर्वत्यं च व्याप्यलक्षणं स्वभावं कर्म स्वय नामसंज्ञण, वि, ण, ण, परदम्बपज्जाय, पुग्गलदव्य, पि, तहा, सय, भाव। धातुसंज्ञ-परि-नम नत्रीभावे, गिन्ह ग्रहणे, उव-पज्जगत। नि, अनि न व्यर्थ्याय, पगलद्रव्य, अपि, तथा, स्वक, भाव । मूलधातु परिणम प्रहृत्वे, ग्रह उपादाने, उत्-पद गती, बृ गतौ स्वादि, परि-अय भी जीवके साथ कर्तृकर्मभाव नहीं है । 3 टीकार्थ -- जिस कारण जीवके परिणामको अपने परिणामको तथा अपने परिणाम के फलको न जानता हुआ पुद्गलद्रव्य परद्रव्य (जीव ) के परिणामरूप कर्मको मृत्तिका कलशकी तरह भाप अंतयपिक होकर श्रादि, मध्य और अन्तमें व्याप्त कर नहीं ग्रहण करता उसो प्रकार परिणमन भी नहीं करता है तथा उत्पन्न भी नहीं होता है, परन्तु प्राप्य विकार्य श्रीर निर्वत्र्यरूप व्याप्यलक्षण अपने स्वभावरूप कर्मको अन्तव्यपक होकर आदि, मध्य और अन्त में व्याप्य उसीको ग्रहण करता है, उसी प्रकार परिणत होता है तथा उसी प्रकार उपजता है । इस कारण प्राप्य विकार्य और निर्वर्त्यरूप व्याप्यलक्षण परद्रव्य (जीव ) के परिणामस्वरूप कर्मको न करते हुए जीवके परिणामको अपने परिणामको तथा अपने परिणामके फलको नहीं जानते हुए पुद्गलद्रव्यका जीवके साथ कर्तृकर्मभाव नहीं है । भावार्थ -- यदि कोई माने कि पुद्गल जड़ है वह किसीको जानता नहीं, यतः उसका जीवके किन्तु यह बात नहीं है । परमार्थसे परद्रव्यके साथ किसीके कर्तृ कर्मभाव नहीं है । साथ कर्तृकर्मभाव हो जायगा, अब इस अर्थका काव्य कहते हैं-- ज्ञानी इत्यादि । श्रर्थ -- ज्ञानी तो अपनी और पर की दोनोंकी परिगातिको जानता हुआ प्रवृत्त होता है तथा पुद्द्मलद्रव्य अपनी और परकी दोनों ही परितियोंको नहीं जानता हुआ प्रवृत्त होता है । वे दोनों परस्पर अन्तरंग व्याप्य व्यापक भावको प्राप्त होने में असमर्थ हैं, क्योंकि दोनों भिन्न द्रव्य हैं सदाकाल उसमें अत्यन्त भेद है ।
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy